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अपने शहर से
यह रचना एक आत्मीय पत्र के रूप में लिखी गई है, जिसमें नायक अपने प्रिय को संबोधित करते हुए अपने छोटे से शहर श्रावस्ती के प्रति गहरी भावनाएँ प्रकट करता है। यह पत्र केवल प्रेम की बात नहीं करता, बल्कि उस माटी से जुड़ी स्मृतियों, संघर्षों और जिम्मेदारियों की भी बात करता है, जिसने नायक को साँस दी और जीने का अर्थ भी। बड़े शहर की चकाचौंध और कठिनाइयों के बीच नायक को अपने गाँव की सादगी, अपनापन और मानवीयता की याद सताती है।
वह चाहता है कि उसका प्रिय भी उसी शहर में आए, ताकि वे मिलकर उस नग
Oct 75 min read


मेरा गाँव, मेरा शिक्षक।
चौदह साल बाद शहर की भाग-दौड़ और इंस्टाग्राम की दुनिया से दूर, जब लेखिका ताल छापर लौटीं, तो बस की बदबूदार सीट पर बैठकर भी उन्हें सुकून मिला। वहाँ उन्होंने देखा कि गाँव के लोग आज भी काला चिटका हिरणों के लिए अपनी सहूलियत छोड़ लंबा रास्ता अपनाते हैं। मिट्टी के कमरों में उन्हें वह शांति मिली जो शहर नहीं दे पाता और बिना किसी रिश्ते के भी अपनापन महसूस हुआ। लेखिका की इस यात्रा में और क्या-क्या गहरे सबक छिपे हैं? क्या यह गाँव आपको भी आपके जीवन का असली मतलब सिखा सकता है? जानने के लिए इ
Sep 308 min read


नमक की हवा में सबक- विशाखापट्टनम
जगदंबा जंक्शन की भीड़ में मिला एक थप्पड़ मेरे जीवन का सबसे बड़ा मोड़ बन गया। वह पल सिर्फ मेरे और माँ के बीच का नहीं था बल्कि वह मेरे शहर का सबक था। परदादी के सुबह के कोलम पैटर्न से लेकर मछुआरों की पत्नियों की आवाज़ तक, विशाखपट्टनम ने मुझे सिखाया कि असली ताकत सिर्फ सहने में नहीं, चुनने में है; क्या स्वीकार करना है, क्या बदलना है। बचपन में सीखी अदृश्य सीमाएँ, किशोरावस्था में चुप्पी की कीमत, कॉलेज में “बहुत बोल्ड किसके लिए?” की सीख, ये सब मुझे उसी पल के लिए तैयार कर रहे थे। आज, ए
Sep 2312 min read


उज्जैन – अनुभवों का उजास
कुछ नगर केवल नगर होते हैं — ईंट, पत्थर, सड़कों और इमारतों का समुच्चय। पर कुछ ऐसे होते हैं, जो चेतना की थाती बन जाते हैं, इतिहास, संस्कृति और अनुभवों की सुवास लिए चलते हैं। उज्जैन ऐसा ही नगर है — न केवल शिव की नगरी, बल्कि आत्मबोध, अनुभव और जीवन-ज्ञान की पाठशाला।
उज्जैन में कई वर्ष बिताने के बावजूद, यह नगर मेरे लिए शुरू में केवल ईंट-पत्थर और घाट-चौक जैसा प्रतीत होता था। न गलियाँ अपनापन देतीं, न चेहरे परिचय का सुकून। लेकिन फिर कैसे उज्जैन, जिसकी हर गलियों, घाटों और परंपराओं म
Sep 165 min read


पराया शहर भी अपना था।
सुशील जी को अटरू आए हुए कई महीने हो चुके थे, पर यह शहर उन्हें अब तक अपना नहीं लग पाया था। दिनभर की भागदौड़, विद्यालय की जिम्मेदारियाँ और कमरे की दीवारों में घिरी एकाकीपन की घुटन, सब कुछ उन्हें अजनबी लगता था। न गलियाँ अपनेपन से बुलातीं थीं, न ही चेहरों पर पहचान का सुकून मिलता था।
लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि वही अटरू, जो कभी बोझ सा लगता था, धीरे-धीरे उनका शिक्षक बन बैठा? किस तरह मंदिरों, तालाबों, लोक-परम्पराओं और लोगों की जीवन-गाथाओं ने उन्हें ऐसी गहरी सीख दी जिसे शायद कोई विश्व
Sep 108 min read


पानी की असमानता: स्रोत से सप्लाई तक
गर्मियाँ बढ़ने के साथ, भारत के छोटे शहरों में पानी की किल्लत और बढ़ रही है, जहाँ नल खोलना अक्सर अनिश्चितता लेकर आता है की पानी आया की नहीं । AMRUT 2.0 जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रम बेहतर पानी पहुँचाने का वादा करते हैं, लेकिन यहाँ की पुरानी पाइपलाइन, अधूरे प्रोजेक्ट और अनियमित सप्लाई जैसी समस्याएँ बनी हुई हैं। कुछ शहर स्मार्ट मीटर से नवाचार कर रहे हैं, तो कई पुराने सिस्टम में फंसे हैं। क्या ये बड़े प्लान सच में बुनियादी ढांचे और पानी की न्याय के बीच की दूरी पाट पाएंगे?
May 119 min read


मेडिकल कचरे की अनदेखी कहानी
बायोमेडिकल कचरा निपटाने के नियम तो स्पष्ट हैं। दिशा-निर्देश मौजूद हैं, जुर्माने तय हैं, और जिम्मेदारी भी तय की गई है। फिर भी, भारत के छोटे शहरों में बायोमेडिकल कचरा नालों, जल स्रोतों, खुले मैदानों और कूड़ेदानों में मिलता रहता है। ऐसा क्यों होता है? छोटे शहर अपने मेडिकल कचरे को सुरक्षित तरीके से प्रबंधित करने में क्यों असमर्थ हैं?
Mar 612 min read


परिवहन का विरोधाभास
भारत के छोटे शहरों में गाड़ियों को खास तवज्जो मिलती है, जबकि पैदल चलने वालों और साइकिल चालकों को जगह के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हमारे शहरी परिवहन में कई साफ-साफ विरोधाभास दिखते हैं — फुटपाथों को पार्किंग में बदल दिया गया है, ई-रिक्शा जैसे साधनों को नजरअंदाज किया जाता है, जबकि ज़्यादातर लोग चलकर, साइकिल से या अनौपचारिक साधनों से ही सफर करते हैं। शहर महंगे मेट्रो प्रोजेक्ट्स के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन क्या हम उन साधनों को नजरअंदाज़ कर रहे हैं जो सच में शहरों को चलाते हैं?
Feb 1910 min read


स्थानीय चुनावों पर अदृश्यता की चादर
जिस लोकतंत्र की बुनियाद जनता के वोटों पर टिकी हो, वहां शहर स्तर के चुनाव इतने अदृश्य क्यों हैं? कभी वोटर लिस्ट में नाम ही नहीं होता, तो कभी घोषणापत्रों में सिर्फ़ झूठे और धुंधले वादे होते हैं। नगर निकाय चुनाव अक्सर बिना चर्चा या ध्यान के निकल जाते हैं — जबकि असल में वही हमारे रोज़मर्रा के जीवन को आकार देते हैं। इस चुपचाप चल रही गड़बड़ी और जवाबदेही की धुंधली तस्वीर के बीच शायद अब वक्त आ गया है कि नागरिक सवाल पूछें: हमारे शहरों को असल में चला कौन रहा है?
Feb 58 min read


परंपराएं, रिमिक्सड - 2025 एडिशन
2025 के करीब आते ही, भारत के छोटे शहरों में न्यू इयर ईव की खुशियां अब परंपरा और ग्लोबल ट्रेंड दोनों को अपना रही हैं। जो कभी सिर्फ़ परिवारों के बीच सिमटा हुआ जश्न होता था, वह अब पूरे समुदाय की जीवंत महफिल बन गई है। इन उत्सवों के साथ-साथ स्थिरता और आध्यात्मिकता की ओर भी रुझान बढ़ा है, जहां नागरिक साफ-सुथरे और हरे-भरे शहरों की उम्मीद जताते हैं। जब परंपराएं नए अंदाज में पेश हो रही हैं, तो आपके शहर ने नए साल का स्वागत कैसे किया?
Jan 303 min read


कॉफी के साथ उभरती नई संस्कृति
भारत की कॉफी संस्कृति में एक अद्भुत क्रांति आई है, जो अब केवल फ़िल्टर कॉफी के रीजनल शौक से निकलकर पूरे देश में फैले ट्रेंड में बदल गई है। आधुनिक कैफे संस्कृति तेजी से बढ़ रही है, जहां घरेलू और अंतरराष्ट्रीय ब्रांड अब टियर-2 और टियर-3 शहरों तक पहुंच रहे हैं। कॉफी की सांस्कृतिक जड़ें गहरी हैं। बदलती जीवनशैली, डिजिटल मीडिया का असर, और युवाओं में स्पेशलिटी कॉफी के प्रति बढ़ती रुचि की वजह से कॉफी अब सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि एक नया जीवनशैली का हिस्सा बन गई है।
Jan 225 min read


पहचान के धागे
जब आप कांचीपुरम, फिरोज़ाबाद या खुर्जा का नाम सुनते हैं, तो सबसे पहले आपके मन में क्या आता है? शायद कांजीवरम साड़ियां, कांच की चूड़ियां या चीनी मिट्टी से बनी वस्तुएं (सिरेमिक)। पूरे भारत में छोटे, पुश्तैनी व्यवसाय और कुटीर उद्योग अपने शहरों के साथ इतनी गहराई से जुड़े हुए हैं कि दोनों को अलग करना काफी मुश्किल काम है। हैंडलूम और इसी तरह के क्षेत्रों के छोटे व्यवसाय सिर्फ़ आर्थिक इकाइयां नहीं हैं, बल्कि ये छोटे शहरों की आत्मा हैं।
Jan 84 min read


मच्छर और मानसून का कहर
भारत के छोटे-छोटे शहर मानसून के दौरान डेंगू और जापानी एन्सेफलाइटिस जैसी बीमारियों के बढ़ते खतरे से जूझ रहे हैं। बदलते बारिश के पैटर्न, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और सीमित म्यूनिसपल संसाधन इन बीमारी के फैलाव को रोकना मुश्किल बना रहे हैं। सीमित संसाधनों और बढ़ते खतरों के बीच, क्या छोटे शहर मौसमी स्वास्थ्य प्रभावों का सामना करने के लिए तैयार हैं? जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन मौसम संबंधी स्वास्थ्य जोखिमों को बदल रहा है, मजबूत स्थानीय स्वास्थ्य व्यवस्था बनाने की चुनौती और भी जरूरी होत
Sep 10, 20245 min read


पलक झपकते ही ख़रीदारी
बड़े शहरों में क्विक कॉमर्स तेज़ी से बढ़ रहा है, वहीं छोटे शहर एक दोराहे पर खड़े हैं — जहां सहूलियत, स्थानीय नवाचार और बढ़ती चुनौतियों के बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है। जहां बड़े ब्रांड संभल-संभल कर आगे बढ़ रहे हैं, वहीं छोटे शहरों में स्थानीय बिज़नेस अपने समुदाय-आधारित मॉडल के साथ अपनी अलग पहचान बना रहे हैं। क्या क्विक कॉमर्स एक नई ज़रूरत बन रही है या फिर यह उन बदलावों की झलक है जो मेट्रो शहरों से दूर चुपचाप आकार ले रहे हैं?
Jul 11, 20243 min read


छोटे शहरों में बढ़ती गर्मी
भारत के छोटे शहर रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की लहर से जूझ रहे हैं, जैसे ऊटी, बाडमेर और रतलाम में अब तक के सबसे अधिक तापमान दर्ज किए गए हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि शहरीकरण भी तापमान बढ़ने का एक बड़ा कारण है। ऐसे में ये शहर इन कठिन हालातों से कैसे निपट रहे हैं? हीट एक्शन प्लान, कूलिंग स्टेशन और समुदाय आधारित पहल जैसी नई रणनीतियां लागू की जा रही हैं। क्या ये कदम बढ़ती गर्मी की समस्या से लड़ने की चाबी साबित होंगे?
Jun 30, 20247 min read


यह मेरी जगह है!
भारत में मेट्रो शहरों के साथ-साथ छोटे शहरों में भी को-वर्किंग कल्चर तेजी से बढ़ रहा है। जयपुर से लेकर कोयंबटूर तक, फ्लेक्सिबल वर्कस्पेस स्टार्टअप्स, फ्रीलांसरों और बड़ी कंपनियों के काम करने के तरीके को बदल रहे हैं। सस्ता रेंट, बेहतर कनेक्टिविटी और बदलता हुआ वर्क कल्चर इस ट्रेंड को आगे बढ़ा रहें हैं। जैसे गोवा समुद्र तट के पास वर्क हब का सपना देख रहा है, क्या छोटे शहर भी भारत की इस को-वर्किंग क्रांति को अपनाने के लिए तैयार हैं?
Jun 20, 20246 min read


बाज़ारों की उलझी कहानी
भारत के कोने-कोने में लगने वाले साप्ताहिक हाट सिर्फ़ बाज़ार नहीं हैं — ये व्यापार, संस्कृति और समुदाय का हिस्सा हैं। कालिम्पोंग का बिहीबारे हाट हो या गुवाहाटी का बेलतला बाज़ार, ये हाट आज भी शहरों में बदलती ज़रूरतों के साथ चलते जा रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे शहरों में दिल्ली हाट जैसे 'क्यूरेटेड' बाज़ार बनते हैं, सवाल उठता है कि क्या शहरी बदलावों के बीच हम इन पारंपरिक हाटों की असली रौनक और अपनापन बनाए रख पाएंगे?
Jun 20, 20245 min read


कोटा फैक्टरीज का उभार
कोचिंग सेंटर अब मेट्रो शहरों से बाहर भी तेजी से फैल रहे हैं, जैसे रांची, पटना और गुवाहाटी में, जहां ग्रामीण इलाकों के छात्र प्रतियोगी परीक्षाएं पास करने की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि, बढ़ती लागत, नियमों की कमी, और मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं अभी भी बड़ी चुनौतियां हैं। सरकार की मुफ्त कोचिंग योजनाएं तो सामने आ रही हैं, लेकिन कोचिंग संस्कृति के दबावों को संभालना जरूरी बना हुआ है। क्या आपके शहर में भी ऐसे ट्रेंड्स दिख रहे हैं?
Jun 13, 20247 min read


एक अंतिम प्रस्तुति
भारत में कभी आम जनता के मनोरंजन के केंद्र रहे सिंगल-स्क्रीन थिएटर तेजी से खत्म हो रहे हैं। आज देश में 6,000 से भी कम थिएटर बचे हैं, जिनमें से केवल 1,000 ही संचालित हो रहे हैं। मल्टीप्लेक्स का उदय, महामारी की बाधाएं और बढ़ते कर दरों ने कई प्रतिष्ठित थिएटरों को बंद करने पर मजबूर कर दिया है। लेकिन क्या इस कहानी में कोई मोड़ आ सकता है? कुछ थिएटर अपनी इनोवेटिव रणनीतियों और सरकारी समर्थन के चलते बचाव कर रहे हैं, और हाल की ब्लॉकबस्टर फिल्मों की सफलता इस उद्योग के पुनरुद्धार का संकेत
Jun 6, 20246 min read


उभरते हुए स्टार्टअप सितारे
भारत के स्टार्टअप माहौल में बदलाव आ रहा है, जहाँ टियर-2 और टियर-3 शहर नई कंपनियों की तेजी से वृद्धि कर रहे हैं। छोटे शहर अब देश के आधे स्टार्टअप का हिस्सा बन चुके हैं, जो स्थानीय समर्थन, कुशल प्रतिभा और सरकारी योजनाओं की वजह से आगे बढ़ रहे हैं। फिर भी, फंडिंग और इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। क्या ये छोटे शहर आने वाले समय में बड़े इनोवेशन हब बन सकते हैं? शार्क टैंक जैसे शो इन उभरते सितारों पर ध्यान दे रहे हैं; क्या ये उनके हुनर को निखारने की चाबी हो सकते हैं?
May 23, 20246 min read
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