पराया शहर भी अपना था।
- connect2783
- Sep 10
- 8 min read
Updated: Sep 30
First Position- Hindi, Writing Contest 2025
By Pawan Nahlot
City: Atru, Rajasthan
सारांश: सुशील जी को अटरू आए हुए कई महीने हो चुके थे, पर यह शहर उन्हें अब तक अपना नहीं लग पाया था। दिनभर की भागदौड़, विद्यालय की जिम्मेदारियाँ और कमरे की दीवारों में घिरी एकाकीपन की घुटन, सब कुछ उन्हें अजनबी लगता था। न गलियाँ अपनेपन से बुलातीं थीं, न ही चेहरों पर पहचान का सुकून मिलता था। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि वही अटरू, जो कभी बोझ सा लगता था, धीरे-धीरे उनका शिक्षक बन बैठा? किस तरह मंदिरों, तालाबों, लोक-परम्पराओं और लोगों की जीवन-गाथाओं ने उन्हें ऐसी गहरी सीख दी जिसे शायद कोई विश्वविद्यालय भी न दे पाए?
कभी-कभी मनुष्य का सामना कुछ ऐसे किस्से, कहानियाँ और लोगों से हो जाता है जो कुछ ही पलों में ज़िन्दगी भर
की सीख दे जाते हैं | ऐसी ही कई कहानियाँ भारत के हर गली-मुहल्ले में आज भी गूँजती है | अब चाहे वो कहानियाँ, राजस्थान की मिट्टी में छुपी शौर्य गाथाएं हों या फिर दिल्ली के बल्लीमारान में छुपे गालिब के शेर-ओ-शायरी वाले किस्से | भारत के हर गाँव, हर शहर के कुछ रिवाजों, जगहों या पौराणिक परम्पराओं ने सीख देने का जिम्मा, अपने सर उठा रखा है | ऐसे ही कुछ किस्से और कहानियाँ जुड़ी हैं, सुशील कुमार और राजस्थान के छोटे से शहर अटरू से |
सावन शुरू होने को था, आषाढ़ के बस दो ही दिवस बचे थे, सुशील कुमार जी अटरू के राजकीय विद्यालय में गणित के शिक्षक के रूप में कार्यरत हुवे | उनके लिए ये शहर और उनका ओहदा उतना ही नया था जितना किसी नवजात शिशु के लिए सूरज की पहली किरण होती है | विद्यालय का आवरण बेहद सुंदर था, सुंदर खुशबूदार फूलों वाले पौधे और गुलमोहर के वृक्ष लगे थे लेकिन विद्यालय के कमरे नब्बे के दशक की याद दिला रहे थे, बिना प्लास्टर की हुई पत्थर की दीवारें, पीली मिट्टी से पुते हुवे कमरे और दीवार के बीचों बीच लगा हुआ श्यामपट्ट जो चॉक से बार बार लिखने मिटाने से सफेद हो चुका था | सुशील कुमार इसे अपना कार्यस्थल मान चुके थे|
सुशील जी को अटरू आए हुवे दो-तीन महीने बीत चुके थे परन्तु उन्हे ये शहर अभी तक रास नहीं आया था | आता भी कैसे, हर रोज़ सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक का सफर विद्यालय में ही कट जाता था और इतवार की छुट्टी का दिन कभी कपड़े धोकर स्त्री करने में तो कभी किताबें समेटने में बीत जाता था | बाहर निकलते तो इस शहर की तंग गलियों और अपरिचित चेहरों से उनका सामना होता | चाय की टपरी पर बैठे बुजुर्ग, मोड़ खाती सड़कों पर गुज़रती गाड़ियां और मन्दिर में देर तक गूँजती घण्टियों और भजनों की आवाज़े उन्हें असहेज करती, जैसे ये सब किसी और ही संस्कृति के प्रतिनिधि थे, उनका कभी इसे परिवेश से पाला ही ना पड़ा हो | विद्यालय से कमरे पर लौटते ही उनका मन बेचैन होने लगता था, जैसे उस कमरे की दीवारें उन्हें अपने भीतर समेट रही हों | उनका हर रोज़ सब कुछ छोड़ कर चले जाने का मन करता था, परन्तु रुकने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था |
फिर एक रोज़, विद्यालय की विशेष छुट्टी का दिन आया, सुशील जी को अटरू आए हुए काफी समय हो चुका था | बसंत के कुछ दस दिवस हुवे होंगे और वो अपना भरपूर सौन्दर्य हवाओं मे बिखेर चुकी थी, खेतों में सरसों के फूल मुस्कुरा रहे थे | बीते दिनों विद्यालय की जिम्मेदारियों मे व्यस्त रहने के बाद, आज सुशील ने शहर को ठीक तरह से जान लेने का मन बना ही लिया था | उन्होंने अपना थैला निकाला और उसमे एक बोतल, अपनी डायरी और कलम रखी ताकि रास्ते की अनुभूतियों और स्मृतियों को शब्दों के जाल में बुना जा सके |
उनका पहला पड़ाव था- फूलदेवरा शिव मंदिर, जिसे मामा भांजे का मंदिर भी कहा जाता था | वो रास्ता पूछते पूछते राजकीय कन्या विद्यालय के पास पहुँचे ही थे कि उन्हें बिल पत्र तोड़कर ले जाती महिलायें दिखी, उन्होंने अनुमान लगा लिया था की मंदिर यही विद्यालय के पीछे वाली गली में हैं जिधर वो महिलायें जा रही थी और उनका अनुमान सही भी था | मंदिर पर जब उनकी नज़रें पड़ी तो वो अचंभित रह गए, मंदिर में कोई सीमेंट नहीं, कोई चूना नहीं, सिर्फ पत्थरों की आत्मीय सिलावट |

ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सजीव पत्थरों ने एक-दूसरे को सहारा देकर, अपने आप को शिव पर समर्पित कर दिया हो | इस मंदिर की विशेषता यही थी कि ये सिर्फ पत्थरों की शिलाओं से बना हुआ था, ऐसा लगता था मानो कि केवल छू लेने भर से सारी शिलाएं धरती को स्पर्श कर लेगी, परन्तु इसका सदियों से स्थिर खड़ा होना ही इसकी मजबूती का प्रमाण है | उनके मन में उठ रही जिज्ञासा ने पास बैठे बुजुर्ग से पूछ ही लिया- बाबा ये मंदिर बिना सिमेन्ट या चुने के भी कैसे खड़ा है ? इसे मामा भांजे का मंदिर क्यों कहते हैं ? बुजुर्ग ने सुशील की आँखों में देखते हुवे उत्तर दिया-
बेटा ! किसी भी रिश्ते को जोड़ने के लिए किसी सिमेन्ट या रेत की जरूरत नहीं होती, उसके लिए केवल विश्वास हो वही काफी है, ये शिलाएं बड़ी ही श्रद्धा, विश्वास और निश्छल प्रेम से लगाई गयी हैं, यही श्रद्धा इन्हें आंधी तूफ़ानों से लड़ने की क्षमता देती है और मामा भांजे का रिश्ता भी इसी तरह श्रद्धावान और निश्छल होता है |
सुशील को बाबा की बात अच्छे से समझ आ चुकी थी, उन्हें इस मंदिर के भौतिक स्वरूप से ये साफ समझ आ रहा था कि रिश्ते भलें कितने ही नाजुक क्यों ना हों, अगर उन्हें सही समझ बूझ, सच्चाई और प्रेम से निभाया जाए तो वे अटूट होते हैं | सुशील ने इस किस्से को अपनी डायरी में कैद कर लिया और अगले पड़ाव पर चल पड़े |
दूसरे दिन उन्होंने साथी शिक्षक त्यागी जी से सुना कि अटरू में एक पुरातत्विक मंदिर है-गड़गच, 13वीं शताब्दी का | जिसे कुछ सालों पहले ही खुदाई कर के निकाला गया है | सुशील की गड़गच देख आने की जिज्ञासा हुई तो अगले इतवार को उन्होंने वह जाने का मन बना लिया | इतवार की सुबह की खिली-खिली धूप में, सुशील जी पगडंडियों और खेतों के रास्ते गड़गच पहुँच गये | सुशील जैसे ही मंदिर पहुँचे मानो समय थम सा गया हो। टूटी दीवारें, पुरानी मूर्तियाँ और गूंजती निस्तब्धता, हवाओं की सिसकियाँ भी ऐसी मानो जैसे खुद इतिहास संवाद करने का माध्यम खोज रहा हो | इस टूटे हुवे खंडहर में, वो इस मंदिर की भव्यता को महसूस कर रहे थे, जो वक़्त के साथ मिट्टी हो चुका था | वहाँ की टूटी हुई मूर्तियाँ आज भी उनके अस्तित्व का, उन्हें उनके होने का अहसास दिला रही थी, जो वक़्त के साथ साथ और फीका पड़ता जा रहा था |
“वक़्त से बड़ा कोई शिक्षक नहीं होता,” उन्होंने धीरे से कहा |
सुशील कुमार मंदिर के ऊपरी हिस्से पर पहुंचे तो उन्हे आभास हुआ कि वो किसी विशाल पहाड़ी पर खड़े हों और मंदिर के जमीन में उतना ही और धँसे होने का अनुमान लगाने लगे जितनी ऊँचाई पर वो थे और सोचने लगे- “जिसने सदियों तक यह मंदिर देखा है, जिसने इस मंदिर की वास्तविकता को जिया है, उसने सब कुछ सीखा होगा, सहनशीलता, धैर्य और टिके रहने की क्षमता|” और किसी नफरत के सौदागर ने उसके अस्तित्व को मिटाने की कोशिश भी की तो प्रेम ने उसे फिर से खोद निकाला | गड़गच उन्हें सिखा गया कि कला, आस्था और ज्ञान एक साथ जीते हैं, बशर्तें हम उन्हें समय दें |
अब मास्टरजी को अटरू रास आने लगा था, अब तो आते जाते लोग भी उन्हे राम-राम गुरुजी कह कर संबोधित करने लगे थे, वे भी शाम को चाय की दुकान पर बैठे बुजुर्गों से संवाद कर, उनके जीवन का तजुर्बा लेते और हर नई सीख को अपनी डायरी मे उकेर लेते, उनका मन अब यहीं रहने को होने लगा था | परन्तु समय बड़ा बलवान होता है, घर वालों की सिफारिश पर उनका तबादला अपने ही शहर में हो गया था, बस विद्यार्थियों के परिणाम घोषित होने तक उन्हें इस विद्यालय में रुकना था | लेकिन यहाँ से जाने की बात, कहीं न कहीं उनके चित्त में इस तरह उथल पुथल मचा रही थी जैसे शादी की पहली रात ही किसी फौजी को सरहद से बुलावा आ गया हो, या फिर मेले से घर लौटते ही किसी बच्चे का खिलौना टूट गया हो |
यह शहर उनकी आत्मा से जुड़ गया था, इसकी गलियों, मंदिरों, तालाबों और बच्चों की मुस्कानों में उन्हें सब कुछ अपना सा लगने था | जाना भले ही तय हो, लेकिन उनका तन और मन यहाँ की मिट्टी से जुड़ चुका था |
एक रोज़, यूं ही टहलते-टहलते वे बुधसागर तालाब पहुँच गये थे, तालाब का पानी स्थिर था और साफ भी | एक किनारे पर कुछ खेत थे जिनमें गेहूं की दंगियाँ लहरा रही थी और दूसरे किनारे पर कुछ बच्चे मछलियाँ पकड़ने की नाकाम कोशिशें कर रहे थे | सुशील जी घाट पर बनी सीढ़ियों की रैलिंग का सहारा लिए तालाब में अपनी ही परछाई को इस तरह निहार रहे थे मानो अपना ही चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहे हों | चैत्र का महिना होने के बावजूद, तालाब का भरपूर होना, उनके मन के खालीपन को चिढ़ा रहा था |
तभी पास से गुजरते किसान ने उनके मन को भांप लिया था और कहा- ये तालाब सारे साल भर रहता है !
सुशील- क्यों?
किसान- “तालाब तो वही पानी सँभालता है जो सीमाएं समझता है, जो पानी सीमाएं लांघ जाता है, नाले के रास्ते नदी में जा मिलता है | ज़िंदगी भी वैसी ही है गुरुजी, एक सीढ़ी चढ़ने के लिए दूसरी छोड़नी पड़ती है, नदी में बहने के लिए तो सीमाएं लाँघनी पड़ती हैं | किसान की बातें सुनकर सुशील मौन थे और किसान जाते-जाते उन्हें इस सीख के साथ साथ धनुषलीला में आने का निमंत्रण भी दे गया |
अटरू में धनुषलीला लोकोत्सव, 150 सालों से मनाया जाता आ रहा था, जो आम जनता द्वारा भगवान श्री राम और माता सीता के विवाह के उपलक्ष में ज़ोरों-शोरों से मनाया जाता है | यहाँ के स्थानीय लोग विभिन्न झाँकियों और अभिनय से कई पौराणिक कथाओं का चित्रण करते हैं |
जब सुशील कुमार ने अटरू के इन रिवाजों और परम्पराओं को देखा तो उन्हें इस शहर से लगाव और बढ़ गया था| भगवान श्रीराम के चरित्र से तो वे पहले ही वकिफ़ थे परन्तु धनुषलीला ने उन्हें उनके जीवंत स्वरूप से मिलाया जो किसी शोध से कम नहीं था | ये सारे किस्से और कहानियाँ उनके जीवन में कई सकारात्मक बदलाव लाने वाले थे |
सत्र का अंत निकट था, स्कूल में वार्षिक परिणाम घोषित हो रहे थे | बच्चे अब उन्हें "हमारे प्यारे गुरुजी" कहकर पुकारने लगे थे, उनके सहकर्मी त्यागी जी और पत्रलेखा जी से भी उनका जुड़ाव मजबूत हो चुका था, सब उन्हें विदाई दे रहे थे | सुशील की आँखें भर आईं थी, ट्रेन का समय हो चुका था | सुशील कुमार अपना सामान उठाकर स्टेशन की ओर चल दिए, वही छोटा-सा अटरू स्टेशन, जहाँ पहली बार उन्होंने खुद को अकेला और अपरिचित
महसूस किया था, लेकिन अब वो पीछे छोड़ आए विद्यालय, बच्चे, स्टेशन पर खड़े यात्री और तो और प्लेटफॉर्म पर लगी घड़ी से भी अपना लगाव महसूस कर रहे थे ।
ट्रेन का इंतज़ार करते समय वो सिर्फ शहर के नाम को निहार रहे थे और सोच रहे थे कि “इस शहर ने बिना चॉक-बोर्ड के, मुझे जो सिखाया वो कोई विश्वविद्यालय नहीं सिखा सकता” अध्यापक बनकर आया था लेकिन आज एक विद्यार्थी की तरह बहुत कुछ सीख कर जा रहा हूँ, चाहे वो फुलदेवरा से मिली रिश्तों की सीख हो, गड़गच से मिली समय की सीख हो या तालाब किनारे किसान द्वारा उनके अंतर्मन को झँझोड़ देने वाला किस्सा |
अटरू शहर और यहाँ के लोगों से मिली हर एक सीख सुशील कुमार के लिए किसी विरासत से काम नहीं थी जिसे उन्होंने अपनी डायरी मे सहेज कर रख लिया था |
ट्रेन के इंजन की सीटी सुनते हुए उन्होंने अंतिम बार अटरू शहर को आँख भर के देखा और बैग से डायरी निकाली और डायरी में लिखे उन किस्सों को पढ़ा और मुस्कुरा कर उन्होंने कहा – मेरा शहर, मेरा शिक्षक |
लेखक के बारे में:

पवन नाहलोत
पवन नहलोत गणित में विशेषज्ञता प्राप्त स्नातकोत्तर शिक्षक हैं, एवं वर्तमान में आई.टी. क्षेत्र में कार्यरत हैं। उन्होंने केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान से एम.एससी. एवं बी.एड. (MSc. B. Ed) की उपाधि प्राप्त की है। साहित्य के प्रति उनकी रुचि बचपन से है, जो उनकी गद्य एवं पद्य रचनाओं में झलकती है.
Comments