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पराया शहर भी अपना था।
सुशील जी को अटरू आए हुए कई महीने हो चुके थे, पर यह शहर उन्हें अब तक अपना नहीं लग पाया था। दिनभर की भागदौड़, विद्यालय की जिम्मेदारियाँ और कमरे की दीवारों में घिरी एकाकीपन की घुटन, सब कुछ उन्हें अजनबी लगता था। न गलियाँ अपनेपन से बुलातीं थीं, न ही चेहरों पर पहचान का सुकून मिलता था।
लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि वही अटरू, जो कभी बोझ सा लगता था, धीरे-धीरे उनका शिक्षक बन बैठा? किस तरह मंदिरों, तालाबों, लोक-परम्पराओं और लोगों की जीवन-गाथाओं ने उन्हें ऐसी गहरी सीख दी जिसे शायद कोई विश्व
Sep 108 min read


My City, My Teacher
This year’s Youth Writing Contest brought together voices from 174 cities, each sharing how their city became a teacher in unexpected ways. Meet the winners and explore their stories.
Sep 52 min read
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