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परिवहन का विरोधाभास

  • connect2783
  • Feb 19
  • 10 min read

Updated: Jul 16

भारत के छोटे शहरों में गाड़ियों को खास तवज्जो मिलती है, जबकि पैदल चलने वालों और साइकिल चालकों को जगह के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हमारे शहरी परिवहन में कई साफ-साफ विरोधाभास दिखते हैं — फुटपाथों को पार्किंग में बदल दिया गया है, ई-रिक्शा जैसे साधनों को नजरअंदाज किया जाता है, जबकि ज़्यादातर लोग चलकर, साइकिल से या अनौपचारिक साधनों से ही सफर करते हैं। शहर महंगे मेट्रो प्रोजेक्ट्स के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन क्या हम उन साधनों को नजरअंदाज़ कर रहे हैं जो सच में शहरों को चलाते हैं?


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फुटपाथ पर पार्किंग: छोटे शहरों में कार और गैर-मोटर चालित परिवहन (NMT) का विरोधाभास


भारत के छोटे शहरों में आवाजाही (मोबिलिटी) एक विरोधाभास है। शहरी योजनाओं और बुनियादी ढांचे की नीतियाँ कारों को प्राथमिकता देती रही हैं, जबकि सच्चाई यह है कि छोटे शहरों में करीब 60% लोग पैदल चलकर या साइकिल से यात्रा करते हैं, और केवल 3% लोग कारों पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिए, ग्वालियर में हर पांच में से दो लोग पैदल ही अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं। अगर इसमें साइकिल को भी जोड़ें (जो गैर-मोटर चालित परिवहन या नॉन-मोटराइज्ड ट्रांसपोर्ट-NMT का हिस्सा है), तो हर पाँच में से तीन लोग इन साधनों से रोज़मर्रा की यात्रा करते हैं। उदयपुर में लगभग आधी आबादी पैदल चलकर ही अपने गंतव्य तक पहुँचती है।


इसके बावजूद, पैदल चलने और साइकिल चलाने का बुनियादी ढाँचा उपेक्षित बना हुआ है। फुटपाथ या तो हैं ही नहीं, और अगर हैं भी तो जर्जर हालत में हैं। साइकिल ट्रैक अक्सर सिर्फ कागजों में मौजूद रहते हैं। कभी अपने 200 किलोमीटर लंबे साइकिल ट्रैकों के लिए मशहूर रहे चंडीगढ़ की हालत अब यह हो गई है कि कुछ ट्रैक बैरियरों से घिरे पड़े हैं, कुछ पर दुकानदारों का कब्जा हो चुका है, और कुछ को तो पार्किंग में बदल दिया गया है। देश के कई छोटे शहरों में यही हालत देखने को मिलती है। खराब बुनियादी ढांचे के चलते पैदल यात्री और साइकिल चालकों के सड़क हादसों में लगातार वृद्धि हो रही है। सुरक्षित फुटपाथ और साइकिल ट्रैक के अभाव में, लोगों को तेज रफ्तार वाहनों के बीच चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे उनकी जान को गंभीर खतरा रहता है।


क्या महंगी ट्रांजिट परियोजनाएँ किफायती आवाजाही को हानि पहुंचा रही है?


हाल ही में, छोटे शहरों में महंगे मास ट्रांजिट प्रोजेक्ट्स (जैसे मेट्रो) में निवेश किया जा रहा है या उनकी योजना बनाई जा रही है, लेकिन इनका असर मिला-जुला रहा है। उदाहरण के लिए, कोच्चि के 2024 के ड्राफ्ट कॉम्प्रिहेंसिव मोबिलिटी प्लान (CMP) की आलोचना इसलिए हुई क्योंकि इसने महंगे मेट्रो प्रोजेक्ट्स को प्राथमिकता दी, जबकि ई-रिक्शा जैसे किफायती विकल्पों को नजरअंदाज कर दिया। विशेषज्ञों के अनुसार, ई-रिक्शा को दरकिनार करने से रोजमर्रा की यात्रा मुश्किल हो जाएगी। इसी तरह, जयपुर मेट्रो को 2015 में शहर के ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बदलने की उम्मीद के साथ शुरू किया गया था, लेकिन लगभग एक दशक बाद भी यह केवल 12 किमी तक ही सीमित है और रोजाना केवल 50,000 यात्री ही इसका इस्तेमाल करते हैं, जबकि शहर की आबादी 40 लाख से अधिक है। हैदराबाद मेट्रो में भी यात्रियों की कम संख्या के कारण इसके संचालन से ऑपरेटरों पर आर्थिक दबाव पड़ रहा है।


अनौपचारिक परिवहन: हम क्या देख पाते हैं और क्या नहीं?


जहां एक तरफ महंगी मेट्रो परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ छोटे और सस्ते अनौपचारिक परिवहन साधनों को नजरअंदाज किया जा रहा है, जबकि कई शहरों में अन्य विश्वसनीय सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध ही नहीं हैं। भारत में बसों की उपलब्धता में भी काफी असमानता है। आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय (MoHUA) के अनुसार, हर एक लाख की आबादी पर कम से कम 40-60 बसें होनी चाहिए, लेकिन लखनऊ में यह संख्या सिर्फ सात है, जबकि बेंगलुरु में 45 बसें उपलब्ध हैं। जब साइकिल व पैदल चलने वालों (NMT) और सार्वजनिक परिवहन के लिए बुनियादी ढांचा अपर्याप्त है, तो छोटे शहरों में अनौपचारिक परिवहन (जैसे ई-रिक्शा, ऑटो, टेम्पो) इस कमी को पूरा कर रहे हैं।


गुवाहटी में सार्वजनिक परिवहन की संरचना असमान है। जहां आधे से ज्यादा यात्राएं 4 किमी से कम की होती हैं, वहां ई-रिक्शा जैसे इंटरमीडिएट पब्लिक ट्रांसपोर्ट (IPT) यातायात का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। शहर में प्रति 1,000 लोगों पर 47 आईपीटी वाहन उपलब्ध हैं, जो छोटी दूरी की यात्रा तय करने में अनिवार्य भूमिका निभाते हैं। इसके विपरीत, बसों की संख्या मात्र 0.79 प्रति 1,000 लोगों पर है, जो MoHUA के मानकों के अनुरूप तो है, लेकिन बढ़ती परिवहन मांग के मुकाबले अपर्याप्त साबित होती है। इसके बावजूद, प्रशासन ने 56 मार्गों पर ई-रिक्शा पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे यात्रियों के लिए किफायती और आसानी से उपलब्ध परिवहन का विकल्प सीमित हो गया है। यह नीति उन हजारों यात्रियों को प्रभावित करती है, जो बसों की सीमित उपलब्धता के कारण इन वाहनों पर निर्भर हैं। 


इसके बावजूद, अक्सर इन परिवहन साधनों को अव्यवस्था, जाम और प्रदूषण के लिए दोषी ठहराया जाता है। लेकिन दूसरी तरफ, यही आईपीटी ऑपरेटर माइक्रो एंटरप्रेन्योर की भूमिका निभाते हैं जो छोटे और मध्यम शहरों में रोजाना लाखों लोगों की आवाजाही का एकमात्र सहारा हैं। कुछ शहरों, जैसे नडियाद (गुजरात) में यह अनौपचारिक परिवहन प्रणाली लगभग एक संगठित सार्वजनिक परिवहन के रूप में विकसित हो चुकी है, क्योंकि वहां बस जैसी सुविधाएं उपलब्ध ही नहीं हैं।


शिलांग जैसे शहर में, जहां फिलहाल सार्वजनिक परिवहन का हिस्सा केवल 11% है लेकिन 2030 तक इसे 30% तक बढ़ाने का लक्ष्य है, वहां आईपीटी सेवाओं की भूमिका बहुत अहम है। यह शहर की 41% यात्रा मांग को पूरा करता है। चूंकि सार्वजनिक बसें कम हैं, इसलिए साझा टेम्पो स्थानीय अनुभव के आधार पर बेहतर रूट तय करते हैं, जिससे लोग आसानी से यात्रा कर सकते हैं। बड़ी परिवहन एजेंसियां अक्सर इस तरह की फ्लेक्सिबिलिटी नहीं दिखा पाती हैं। यह अनौपचारिक परिवहन व्यवस्था दिखने में भले ही असंगठित लगे, लेकिन यह एक सुव्यवस्थित प्रणाली है, जो रोजमर्रा की जिंदगी को सुचारू रूप से चलाने में मदद करती है और शहरों के परिवहन नेटवर्क में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


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शहरों की योजनाएं और आधारभूत ढांचे की नीतियाँ ज़्यादातर कारों को प्राथमिकता देती हैं, जबकि यह सच है कि छोटे शहरों में लगभग 60% लोग पैदल चलने या साइकिल पर निर्भर रहते हैं।





तेज रफ्तार: रोमांचक भी, घातक भी


भारत के छोटे शहरों में कारों को प्राथमिकता देने और मुख्य परिवहन साधनों की अनदेखी से एक चुपचाप बढ़ता हुआ सुरक्षा संकट सामने आ रहा है। परिवहन ढांचे को तेज रफ्तार यातायात के लिए तैयार किया जा रहा है, लेकिन अमृतसर, तिरुची, पुडुचेरी जैसे कई शहरों में खराब सड़क डिजाइन, ट्रैफिक नियमों की अनदेखी, तेज गति, और गलत साइड ड्राइविंग जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। अवैध यू-टर्न, जरूरत से ज्यादा भरे हुए ऑटो-रिक्शा और बिना चेतावनी संकेतों के तीव्र मोड़ रोजमर्रा की यात्रा को खतरनाक बना रहे हैं।


छोटे शहरों में ट्रैफिक नियमों का पालन भी कमजोर है। उदाहरण के लिए, रांची जैसे शहरों में सही ढंग से काम करने वाले ट्रैफिक पोस्ट बहुत कम हैं और ट्रैफिक पुलिस की भारी कमी है। इससे बुनियादी सड़क सुरक्षा उपायों को लागू कर पाना मुश्किल हो जाता है। ओवरलोडेड वाहनों की जांच या ऑटो स्टैंड्स को व्यवस्थित करने जैसी जिम्मेदारियां भी आम पुलिस बलों पर आ जाती हैं, जो पहले से ही अन्य मामलों के बोझ से दबे होते हैं।


आंकड़े बताते हैं कि छोटे शहरों और कस्बों में सड़क दुर्घटनाओं से हुई मौतों की संख्या ज्यादा है। उत्तर प्रदेश के महोबा, ललितपुर और श्रावस्ती जैसे जिलों में पिछले एक साल में सड़क दुर्घटनाओं से मौत के मामलों में 200% की बढ़ोतरी हुई है। मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान के कई शहरों में भी यही प्रवृत्ति देखी गई है। 2024 में, अकेले उत्तर प्रदेश में 24,000 से अधिक लोगों की जान सड़क हादसों में चली गई।


एक और विरोधाभास यह है कि जो वाहन यात्रियों की अधिकतम क्षमता के लिए बनाए गए हैं, वे अवैध मॉडिफिकेशन (सीट बढ़ाने जैसे जुगाड़) के कारण खतरे के क्षेत्र बनते जा रहे हैं। नागपुर जैसे शहरों में, अधिक यात्रियों को ढोने के लिए IPTs (इंटरमीडिएट पब्लिक ट्रांसपोर्ट जैसे ऑटो और टेम्पो) को गैरकानूनी रूप से मोडिफाई किया जाता है। इससे तेज ब्रेक लगने या अचानक मुड़ने जैसी स्थितियों में दुर्घटनाओं की संभावना बढ़ जाती है। यह समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब ट्रैफिक पुलिस और RTO में पर्याप्त स्टाफ नहीं होते, जिससे छोटे-मोटे नियमों का उल्लंघन करके आसानी से बच निकलते हैं।


उदाहरण के लिए, बड़े शहरों में कभी अपराध से जुड़े माने जाने वाले काले शीशों वाले वाहन अब छोटे शहरों में आम होते जा रहे हैं। रांची में ऐसे वाहनों की संख्या बढ़ी है, जबकि शिलांग में मंत्री और विधायक खुद सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी कर रहे हैं। बताया जाता है कि इन्हें "ऊपर से मौखिक ऑर्डर" के आधार पर छूट दी गई है। मैसूर में तो खुद सरकारी अधिकारी काले शीशों वाले वाहनों का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि नियमों की अनदेखी केवल आम लोगों तक सीमित नहीं, बल्कि खुद सरकारी तंत्र भी इसमें शामिल है।


नीतिगत ढांचे में विरोधाभास और असंगति


छोटे शहरों में परिवहन और गतिशीलता (mobility) को नियंत्रित करने वाली नीतियां अक्सर "सुलभता" (accessibility) और "सुरक्षा" (safety) के बीच तनाव को दर्शाती हैं। राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति (NUTP), 2014 में भले ही इंटरमीडिएट पब्लिक ट्रांसपोर्ट (IPT) की भूमिका को स्वीकार किया गया हो, लेकिन इनके परमिट के लिए कोई समान राष्ट्रीय दिशानिर्देश नहीं हैं। ओपन परमिट सिस्टम से परिवहन सुविधाएं सुलभ तो होती हैं, लेकिन यह भीड़भाड़ को बढ़ाता है, जबकि सीमित परमिट सिस्टम परिवहन की उपलब्धता को घटा देता है। AMRUT योजना और मोटर वाहन अधिनियम में किए गए संशोधन भी IPT को पूरी तरह से शहरी परिवहन ढांचे में शामिल करने में विफल रहे हैं। नागपुर में लगभग 25,000 ऑटो रिक्शा चल रहे हैं, लेकिन केवल 9,500 ड्राइवरों के पास ही वैध परमिट हैं। वहीं, 500 से अधिक छह-सीटर ऑटो रिक्शा अभी भी चल रहे हैं, जबकि RTO ने इन्हें हटाने का आदेश दिया था।


उत्तर प्रदेश मोटर वाहन नियम, 1998 के अनुसार गति (speed) और संचालन क्षेत्र (operation areas) पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, लेकिन नई ई-रिक्शा के रजिस्ट्रेशन पर रोक लगाने का कोई प्रावधान नहीं है। इसके बावजूद, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में RTO/ARTO ने मनमाने ढंग से नए ई-रिक्शा के रजिस्ट्रेशन पर प्रतिबंध लगा दिया। बाद में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन प्रतिबंधों को अवैध करार देते हुए खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि ऐसे प्रतिबंध कानूनी दायरे से बाहर हैं। इस तरह के कठोर नियमों का सबसे बड़ा असर उन लोगों पर पड़ता है जो निजी वाहन खरीदने या लंबी दूरी की यात्रा करने में सक्षम नहीं हैं। नतीजतन, किफायती परिवहन तक उनकी पहुँच सीमित हो जाती है।


भोपाल में सितंबर 2024 में स्कूल के बच्चों को ले जाने वाले ई-रिक्शा पर सुरक्षा कारणों से प्रतिबंध लगा दिया गया, लेकिन सार्वजनिक परिवहन की कमी को नजरअंदाज कर दिया गया। वहीं, केंद्र सरकार ने ई-रिक्शा को RTA परमिट से मुक्त कर दिया, जिससे वे औपचारिक यात्रा क्षेत्रों और किराया नियमों से बाहर हो गए। यह नीति-निर्देशों में एक मूलभूत विरोधाभास को दर्शाता है—ई-रिक्शा को किफायती परिवहन के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन उनके संचालन को लेकर स्पष्ट नियमों की कमी है। इससे नीति को लागू करने में असंगति आती है और परिचालन संबंधी चुनौतियां उत्पन्न होती हैं। यदि IPT को शहरी परिवहन योजना में समग्र रूप से नहीं जोड़ा गया, तो ऐसी अलग-थलग नीतियां और निर्देश केवल भीड़भाड़ को बढ़ाने और आवाजाही को सीमित करने का ही काम करेंगी।


जयपुर में अगस्त-सितंबर 2024 में ई-रिक्शा के लिए जोन विभाजन नीति लागू की गई, जिससे छोटे शहरों की परिवहन आवश्यकताओं की समझ में बड़ी खामियां उजागर हुईं। सरकार ने 40,000 ई-रिक्शा को छह जोनों में बांटा, जबकि शहर में पहले से ही 45,000 से अधिक पंजीकृत ई-रिक्शा हैं।


स्क्रैपिंग नीति की अनुपस्थिति के कारण हजारों अतिरिक्त वाहन सड़कों पर रह गए, जिससे भीड़भाड़ की समस्या और बढ़ गई। यह योजना और वास्तविकता के बीच के अंतर को दर्शाता है और इस बात को रेखांकित करता है कि शहरों की परिवहन आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनाई जानी चाहिए, न कि सभी शहरों पर एक जैसी नीतियां थोपी जानी चाहिए।

एक और महत्वपूर्ण समस्या पार्किंग की कमी है। अधिकारी "नो पार्किंग" क्षेत्र तो जल्दी घोषित कर देते हैं, लेकिन वैकल्पिक पार्किंग सुविधाएं प्रदान नहीं करते, जिससे वाहन सड़कों पर ही खड़े होने को मजबूर होते हैं और ट्रैफिक जाम बढ़ता है। उदाहरण के लिए, चंडीगढ़ में पार्किंग की समस्या बनी हुई है, जबकि समाधान केवल कागजों तक ही सीमित हैं। शहर में पर्याप्त पार्किंग इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं होने के कारण, सड़कें ही पार्किंग स्थल बन गई है, जिससे हर दिन ट्रैफिक जाम बढ़ता जा रहा है।


मोबिलिटी पर पुनर्विचार: छोटे शहरों का भविष्य


छोटे शहरों को बड़े शहरों की गलतियों को दोहराने की जरूरत नहीं है, बल्कि वे उनसे सीख सकते हैं। कार-केंद्रित शहरी योजनाओं की नकल करने के बजाय, वे मौजूदा अनौपचारिक परिवहन नेटवर्क के साथ काम करने वाले वैकल्पिक समाधान विकसित कर सकते हैं।वर्तमान में, 1 लाख से अधिक आबादी वाले 10 में से केवल 1 शहर में ही औपचारिक बस सेवाएं उपलब्ध है। इन शहरों में अनौपचारिक और गैर-मोटर चालित परिवहन (NMT) कोई साइड ऑप्शन नहीं बल्कि मुख्य परिवहन माध्यम है। इसलिए, IPTs (इंटरमीडिएट पब्लिक ट्रांसपोर्ट) और NMTs को हाशिए पर डालने के बजाय, शहरों को इन्हें औपचारिक रूप से परिवहन योजनाओं में शामिल करना चाहिए, बेहतर सड़क सुरक्षा नियम लागू करने चाहिए और पैदल यात्रियों और साइकिल चालकों के लिए बेहतर बुनियादी ढांचा विकसित करना चाहिए।


कुछ भारतीय शहर पहले ही IPTs को शहरी परिवहन प्रणाली में शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं। भुवनेश्वर का मो-ई-राइड ई-रिक्शा को एक अलग परिवहन माध्यम के रूप में मान्यता देता है और इसे सामाजिक समावेशन के साथ बढ़ावा देता है। वहीं, कैपिटल रीजन अर्बन ट्रांसपोर्ट (CRUT) नेटवर्क ई-रिक्शा और ई-बसेस को मो-बस सेवा के साथ जोड़ता है ताकि यात्रियों को सुगम यात्रा मिल सके। कोच्चि का मल्टीमॉडल ट्रांसपोर्ट सिस्टम, कोच्चि मेट्रोपॉलिटन ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी (KMTA) के तहत, मेट्रो, फेरी, निजी बस और ऑटो-रिक्शा को एकीकृत कर रहा है। इसके अलावा, निजी बस ऑपरेटरों को लिमिटेड लायबिलिटी कंपनियों  (LLCs) में संगठित किया गया है और ऑटो-रिक्शा चालकों को एर्नाकुलम जिला ऑटो-रिक्शा ड्राइवर्स कोऑपरेटिव सोसाइटी (EJADCS) के तहत लाया गया है, जिससे परिचालन अधिक संगठित और कुशल हुआ है। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि IPTs, चाहे स्वतंत्र रूप से संचालित हों या सार्वजनिक परिवहन के साथ एकीकृत हों, वे यात्रा को अधिक सुलभ बनाने, भीड़भाड़ कम करने और शहरी गतिशीलता को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


हालांकि, मेट्रो नेटवर्क में निवेश बढ़ रहा है, लेकिन उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि लास्ट-माइल कनेक्टिविटी कितनी प्रभावी है। सर्वेक्षण बताते हैं कि खराब पैदल यात्री सुविधाएं, अविश्वसनीय फीडर बसें और अधिक लास्ट-माइल किराए मेट्रो की सवारी करने वाले यात्रियों की संख्या को प्रभावित करते हैं। यदि IPTs को एकीकृत नहीं किया जाता और NMT बुनियादी ढांचे में सुधार नहीं किया जाता, तो मेट्रो प्रणाली का पर्याप्त रूप से उपयोग नहीं हो पाएगा और यात्रियों को निर्बाध यात्रा अनुभव नहीं मिलेगा। इसलिए, IPTs को मजबूत करना, पैदल चलने के अनुकूल शहरी डिजाइन बनाना और भरोसेमंद फीडर नेटवर्क तैयार करना आवश्यक है, ताकि सार्वजनिक परिवहन वास्तव में शहरी यात्रियों की जरूरतों को पूरा कर सके।

नीतिगत स्तर पर, सवाल यह उठता है कि शहरी आवाजाही में प्राथमिकता


वाहनों की आवाजाही को दी जा रही है या लोगों की? 


यदि मानव-केंद्रित मोबिलिटी को प्राथमिकता दी जाए, तो इसका मतलब होगा कि मोटर चालित और गैर-मोटर चालित परिवहन के सभी स्वरूपों—चाहे वे औपचारिक हों या अनौपचारिक—को सार्वजनिक परिवहन के साथ संतुलित रूप से शामिल किया जाए। भारत के छोटे शहरों में परिवहन का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम उन साधनों को पहचानें और समर्थन दें जो वास्तव में लोगों को गंतव्य तक पहुंचाते हैं।

छोटे शहर भारत की शहरी परिवहन क्रांति का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं।


असली सवाल यह है: क्या वे इन विरोधाभासों और चुनौतियों को पार कर पाएंगे?








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