मच्छर और मानसून का कहर
- connect2783
- Sep 10, 2024
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Updated: Jul 16
भारत के छोटे-छोटे शहर मानसून के दौरान डेंगू और जापानी एन्सेफलाइटिस जैसी बीमारियों के बढ़ते खतरे से जूझ रहे हैं। बदलते बारिश के पैटर्न, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और सीमित म्यूनिसपल संसाधन इन बीमारी के फैलाव को रोकना मुश्किल बना रहे हैं। सीमित संसाधनों और बढ़ते खतरों के बीच, क्या छोटे शहर मौसमी स्वास्थ्य प्रभावों का सामना करने के लिए तैयार हैं? जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन मौसम संबंधी स्वास्थ्य जोखिमों को बदल रहा है, मजबूत स्थानीय स्वास्थ्य व्यवस्था बनाने की चुनौती और भी जरूरी होती जा रही है।

कई महीनों तक लगातार बारिश के बाद और ठंड आने से पहले का समय अक्सर वेक्टर जनित बीमारियाँ लेकर आता है। मलेरिया से जूझना तो छोटे शहरों के लिए आम बात थी, लेकिन अब डेंगू और जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस (जेईवी) जैसी कुछ अन्य बीमारियाँ इन शहरों के भौगोलिक परिवेश में आक्रमक रूप में सामने आईं हैं। मानसून के कारण कई भारतीय राज्यों को गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें केरल और बिहार सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। वहीं असम जेईवी के साथ-साथ बाढ़ की भी दोहरी मार को झेल रहा है।
बड़े शहरों से आगे बढ़ते हुए इन बीमारियों ने छोटे शहरों और कस्बों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। जुलाई और अगस्त के महीने में पटना में डेंगू के 90% मामले रिपोर्ट किए गए, जो मानसून का प्रमुख समय होता है। बिहार की राजधानी के अलावा, डेंगू ने मोतिहारी और हसनपुर जैसे छोटे शहरों को भी प्रभावित किया है। इस बीच असम के चबुआ, चापर और गोलकगंज में भी जेईवी के मामलों में वृद्धि देखी गई है। भारी बारिश के बीच अगस्त 2024 में लगभग 1250 मामले आने के बाद एर्नाकुलम लगातार केरल की 'डेंगू राजधानी' के रूप में बना हुआ है।
जहां हमें दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों पर चर्चा करने वाली समाचार सुर्खियाँ तो आसानी से मिल जाती हैं। पर हमने छोटे शहरों के बारे में सोचा कि वे इन मच्छर जनित बीमारियों (एमबीडी) के प्रकोप से कैसे निपट रहे हैं? और उनके इतने अधिक फैलने का क्या कारण है?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमने गुणात्मक शोध के माध्यम से गहराई से विचार किया, अध्ययन में सहायता के लिए हमने कई दूसरे संबंधित शोध लेखों और समाचार रिपोर्ट की समीक्षा भी की। हमने अनौपचारिक नेटवर्क के माध्यम से अन्वेषी सर्वेक्षण (एक्सप्लोरेट्री सर्वे) भी किया, जिसमें कुल 23 प्रतिक्रिया प्राप्त हुईं, इसके साथ ही हमने 3 प्रमुख साक्षात्कार भी किए। हालांकि इसे सटीक जानकारी नहीं माना जा सकता है लेकिन फिर भी इसने कुछ शुरुआती पहलुओं को उजागर किया जो आगे की खोज में हमारी मदद कर सकते हैं। इन प्रतिक्रियाओं ने प्रतिभागियों के नजरिये और उनके अनुभवों के शुरुआती संकेत को सामने लाने में हमारी मदद की। इन प्रतिक्रियाओं के विषयगत दृष्टिकोण का उपयोग करके विश्लेषण किया गया जो विषय से संबंधित जानकारी प्रदान करते हैं और हमारे व्यापक गुणात्मक विश्लेषण के पूरक हैं।
हमारे शोध के परिणाम से यह बात सामने आई कि हालिया दिनों में जलवायु परिवर्तन इन बीमारियों की बढ़ोतरी का प्रमुख कारण है। मानसून-पैटर्न में बदलाव और औसत न्यूनतम तापमान में वृद्धि ने वेक्टर जनित बीमारियों के जोखिम को काफी हद तक बढ़ा दिया है। साल 2023 में पटना में अनियमित वर्षा के कारण सर्दियों के आने में देरी हुई और इस दौरान कूलर का उपयोग भी लगातार जारी रहा, परिणामस्वरूप डेंगू का प्रकोप अक्टूबर महीने के मध्य तक बना रहा। इस वजह से शहर के नगर निगम पर दबाव बनाया गया कि वेक्टर की निगरानी और नियंत्रण सुचारू रूप से किया जाए क्योंकि यह सालभर की आवश्यकता बन गई है।
बारिश के पैटर्न में बदलाव और औसत न्यूनतम तापमान में वृद्धि ने मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों का खतरा काफी बढ़ा दिया है।
इस बीच अगस्त के मानसून के दौरान असम के डिब्रूगढ़ जिले में चबुआ के कुछ हिस्से भारी बारिश के कारण एक सप्ताह से अधिक समय तक जलमग्न रहे। असम मेडिकल कॉलेज (एएमसी) डिब्रूगढ़ के एक मेडिकल इंटर्न के साथ हमारी बातचीत में यह पता चला कि चबुआ में जेईवी के मामलों में भारी बढ़ोतरी हुई है और स्थिर वर्षा जल में उत्पन्न होने वाले रोगों की इस प्रवृत्ति के साथ वेक्टर जनित बीमारियों का खतरा भी बढ़ रहा है।

केरल के कलमस्सेरी में स्वास्थ्य अधिकारियों ने सार्वजनिक स्थलों पर कचरा फेंकने को डेंगू के बढ़ते मामलों का कारण बताया। नगरपालिका स्वास्थ्य समिति के पूर्व अध्यक्ष ने भी धूमन प्रक्रिया (गैसीय कीटनाशक की मदद से सूक्ष्मजीवों को मारने की एक विधि) में कमी के लिए अधिकारियों की ही अनदेखी को जिम्मेदार ठहराया। पिछले साल से एर्नाकुलम के आसपास की कई नगरपालिकाएँ बहु-स्तरीय निवारक कार्रवाई की जरूरतों को उजागर करने की कोशिश कर रही हैं। नगर निकायों को स्वच्छता और वेक्टर संक्रमण नियंत्रण के लिए अधिक मजबूत प्रणाली की जरूरत है इसलिए ऐसी पहलों को समुदायों द्वारा अंतर-विभागीय एकजुटता और सार्वजनिक जागरूकता का समर्थन मिलना चाहिए।
छोटे शहरों के स्वास्थ्य खर्चों की संस्थागत जानकारी सीमित है, लेकिन बड़े शहर जैसे बेंगलुरु और मुंबई भी अपने कुल बजट का सिर्फ 3-4% हिस्सा ही सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं।
कुल सरकारी बजट का केवल 2.69% स्थानीय निकायों के माध्यम से खर्च किया जाता है, उसमें से भी ज्यादातर बजट बड़े नगर निकायों को चला जाता है। छोटे शहरों में स्वास्थ्य पर किए जाने खर्चों की संस्थागत जानकारी भी सीमित है, वहीं बैंगलोर और मुंबई जैसे बड़े शहर भी अपने बजट का केवल 3-4% हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। महानगरों के अलावा दूसरे छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में बढ़ते बीमारियों की तुलना में रोग निवारक स्वास्थ्य कार्रवाई की मौजूदगी काफी कम है। कई रिपोर्ट और हमारे सर्वेक्षण के परिणाम से यह पता चलता है कि लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा केंद्र (पब्लिक हेल्थ केयर सेंटर) में स्वास्थ्य सेवा की कमतर गुणवत्ता को देखते हुए निजी अस्पतालों को ज्यादा तवज्जो देते हैं।
जब नीति निर्माताओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा एक उपयुक्त स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरतों के बारे में बड़े पैमाने पर चर्चा हो ही रही है, तब यह जानना भी बेहद जरूरी हो जाता है कि भारत के छोटे शहरों में स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान परिदृश्य क्या है? छोटे शहर और स्थानीय इलाके डेंगू व अन्य दूसरे मानसूनी चुनौतियों का किस प्रकार सामना कर रहे हैं? क्या स्थानीय नागरिकों की जागरूकता और समुदाय की देख-रेख में चलने वाले प्रयासों का समर्थन करने से भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को संतुलित किया जा सकता है?
मानसून के कारण कई भारतीय राज्यों में गंभीर बीमारी फैलने की घटनाएं हुई हैं, जिनमें केरल और बिहार सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। असम को बाढ़ और जापानी एन्सेफलाइटिस (JEV) के मामलों में वृद्धि जैसी दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
अगर आप भी अपने गृहनगर से जुड़े ऐसे चिंताजनक सवालों से परेशान हैं, तो हमारी रिपोर्ट अवश्य देखें:
"मानसून से तबाही: छोटे शहर बीमार क्यों पड़ रहे हैं?"
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