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मेडिकल कचरे की अनदेखी कहानी

  • connect2783
  • Mar 6
  • 12 min read

Updated: Jul 16

बायोमेडिकल कचरा निपटाने के नियम तो स्पष्ट हैं। दिशा-निर्देश मौजूद हैं, जुर्माने तय हैं, और जिम्मेदारी भी तय की गई है। फिर भी, भारत के छोटे शहरों में बायोमेडिकल कचरा नालों, जल स्रोतों, खुले मैदानों और कूड़ेदानों में मिलता रहता है। ऐसा क्यों होता है? छोटे शहर अपने मेडिकल कचरे को सुरक्षित तरीके से प्रबंधित करने में क्यों असमर्थ हैं?


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छोटे शहरों में नए अस्पताल, क्लीनिक और डायग्नोस्टिक सेंटर तेजी से खुल रहे हैं। भारत के हेल्थकेयर सेक्टर का 2025 तक 638 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है और डायग्नॉस्टिक्स इंडस्ट्री के भी वित्तीय वर्ष 2028 तक लगभग 25 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, जो 2023 में सिर्फ 13 अरब डॉलर थी। कई हेल्थ-टेक कंपनियां अब छोटे शहरों पर फोकस कर रही हैं। मसलन, दिल्ली के एक स्टार्टअप My Family First ने 2022 में दूरदराज के गांवों और छोटे शहरों में 500 डिजिटली एनेबल्ड स्मार्ट हेल्थ (DESH) क्लीनिक खोलने का प्लान बताया था, तब तक उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड में 30 क्लीनिक खुल भी चुके थे। लेकिन जिस रफ्तार से ये चिकित्सा सुविधाएं बढ़ रही हैं, उतनी ही तेजी से बायोमेडिकल वेस्ट (जैव-चिकित्सा कचरा) भी बढ़ रहा है लेकिन चिंता की बात यह है कि इसे सही से संभालने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं दिख रही।

आश्चर्य की बात तो यह है कि इस मुद्दे पर न तो कोई राष्ट्रीय सुर्खियां बन रही हैं, न ही कोई बड़ा हंगामा हो रहा है! ऐसा दृश्य आपकी नजर के सामने से भी जरूर गुजरा होगा- कहीं खुले में पड़ी इस्तेमाल की गई सिरिंज, खून से सनी पट्टियां, एक्सपायर्ड दवाइयां या इस्तेमाल किए गए आईवी ट्यूब्स। कई बार ये वहीं फेंके मिलते हैं, जहां गायें चरती हैं या कुत्ते भोजन खोजते हैं। बारिश आती है तो यह कचरा नालों में बह जाता है, जिससे भूजल और स्थानीय जल स्रोत भी दूषित हो जाते हैं।


क्या बायोमेडिकल वेस्ट सिर्फ कचरे का ढेर है?


बड़े शहरों में बायोमेडिकल वेस्ट को ठीक से नष्ट करने के लिए इन्सिनरेटर, वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट, कलर-कोडेड डस्टबिन जैसी व्यवस्थाएँ हैं इसके साथ ही इन पर सख्त निगरानी भी रखी जाती है। लेकिन जैसे ही हम बड़े शहरों से बाहर निकलते हैं, हालात बिल्कुल बदल जाते हैं। असल में, करीब 80-85% मेडिकल वेस्ट सामान्य और गैर-हानिकारक होता है, इनमें से सिर्फ 15% कचरा ही असल में खतरनाक होता है। लेकिन जब इसे सही तरीके से अलग नहीं किया जाता और सब कुछ एक साथ फेंक दिया जाता है, तो पूरा कचरा ही हानिकारक बन जाता है।


छोटे शहरों और कस्बों में ये कचरा आसानी से गायब नहीं होता। बल्कि, यह अलग-अलग रास्तों से हमारे जीवन में लौट आता है। कई जगहों पर ये खुले में पड़ा रहता है और बारिश के पानी के साथ बहकर नदियों, तालाबों और भूजल में मिल जाता है। फिर वही पानी हम पीते हैं, नहाने और खेतों की सिंचाई के लिए इस्तेमाल करते हैं। खुले में पड़े इस कचरे के पास आवारा कुत्ते, गायें और चूहे घूमते हैं, वे अक्सर इसमें से कुछ खा भी लेते हैं। संक्रमित सूई, पट्टियाँ और अन्य मेडिकल वेस्ट उनके शरीर में चला जाता है, जिससे बीमारियाँ फैलने का खतरा बढ़ जाता है। समस्या यहीं खत्म नहीं होती। अस्पतालों के सफाईकर्मी, कचरा बीनने वाले और कबाड़ीवाले बिना किसी सुरक्षा के, बिना दस्ताना या मास्क पहने, इस संक्रमित कचरे को छूते हैं, वे इसमें से प्लास्टिक और कांच को छाँटकर दोबारा बेचते हैं। लेकिन एक मामूली सी सुई चुभने से भी हेपेटाइटिस- बी, हेपेटाइटिस- सी या HIV जैसी गंभीर बीमारियाँ तक हो सकती हैं।


महाराष्ट्र के तीस कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटीज (CBWTFs) हेल्थकेयर फैसिलिटीज (HCFs) और अस्पतालों द्वारा बायोमेडिकल वेस्ट की सही से छंटाई न करना, प्रदूषण का कारण बन रहा है। अंबिकापुर में एक मेडिकल कॉलेज तो अपना बायोमेडिकल वेस्ट खुले में डाल देता है, बिना इस बात की परवाह किए कि यह सीधे पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य नियमों का उल्लंघन कर रहा है। वहाँ यह कचरा आवारा जानवरों का खाना बन जाता है, जो बीमारियों को बढ़ावा देते हैं। हाथरस में जिला अस्पताल के पीछे सिरिंज, आईवी ड्रिप्स और एक्सपायर्ड दवाइयाँ यूँ ही आम कचरे के साथ पड़ी रहती हैं। फिर कबाड़ बीनने वाले इन्हें बिना किसी सुरक्षा के उठा लेते हैं, यह सोचे बिना कि वे कितनी खतरनाक बीमारियों के संपर्क में आ रहे हैं। जो कचरा बचता है, वह धीरे-धीरे सड़ता है और जमीन व पानी में जहर घोलता रहता है।


बायोमेडिकल वेस्ट से जुड़े सख्त नियम होने के बावजूद, छोटे शहरों में ये घटनाएँ बार-बार सामने आती रहती हैं। असल में, ज़्यादातर अस्पताल या तो लापरवाह हैं, या उनके पास संसाधन की कमी है, या फिर वे इतने व्यस्त हैं कि कचरे को सही तरीके से ठिकाने ही नहीं लगा पाते। वहीं, नगर निगम पहले से ही आम कचरे के बोझ से दबे हुए हैं, तो बायोमेडिकल वेस्ट पर ध्यान देना उनके लिए प्राथमिकता में ही नहीं आता।


नतीजतन यह गंदगी बढ़ती जा रही है। और जब आप इसे ध्यान से देखेंगे, तो एक डरावनी हकीकत सामने आएगी- बायोमेडिकल वेस्ट सिर्फ अस्पतालों में नहीं रुकता, बल्कि हमारे घरों, बाजारों, पानी के स्रोतों और पूरे शहर की रोजमर्रा की जिंदगी में घुल-मिल जाता है।

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... अस्पताल पुराने निपटान तरीकों पर वापस जा सकते हैं, जैसे अस्पताल परिसर में गड्ढे खोदना और कचरे को जलाना। लेकिन असली कीमत अस्पताल नहीं चुकाते, बल्कि यह मरीजों, सफाई कर्मचारियों और उन गरीबों द्वारा चुकाई जाती है जो इन कचरा स्थलों के पास रहते हैं।


कौन भुगत रहा है (असली) खामियाजा?


भारत में बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स, 2016 के तहत यह तय किया गया है कि मेडिकल कचरे को अलग-अलग श्रेणियों में बांटना, इकट्ठा करना, सही तरीके से ढोना और सुरक्षित रूप से नष्ट करना अनिवार्य है। इस नियम के अनुसार सभी अस्पताल, क्लीनिक, ब्लड बैंक और पशु चिकित्सा संस्थान यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार हैं कि उनका कचरा अधिकृत कचरा प्रबंधन सुविधाओं (CBWTFs) को सौंपा जाए। ये ट्रीटमेंट फैसिलिटी इस कचरे को इकट्ठा करके वैज्ञानिक तरीकों से इन्हें नष्ट कर देते हैं- या तो जला कर (incineration), रासायनिक प्रक्रिया से कीटाणु मुक्त करके (chemical disinfection), या फिर गहरे गड्ढों में दबाकर (deep burial)। साल 2023 में अकेले उत्तर प्रदेश में ही हर दिन 99,115 किलोग्राम बायोमेडिकल वेस्ट निकला, जो पूरे देश में सबसे ज्यादा था। इस कचरे के निपटान के लिए सिर्फ 25 अधिकृत केंद्र थे। 


क्या आपने सोचा है कि अस्पतालों और क्लीनिकों में जो मेडिकल कचरा निकलता है, उसका क्या होता है? इसे निपटाने के लिए स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं (हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स) द्वारा CBWTFs को एक शुल्क देना पड़ता है, जो इलाके के आकार और सुविधाओं के हिसाब से अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में बिना बिस्तरों वाले (non-bedded) स्वास्थ्य सेवा संस्थानों और क्लीनिकों को एक बार के लिए ₹5000 का शुल्क देना पड़ता है। इसी तरह, चंडीगढ़ में क्लीनिक, पैथोलॉजी प्रयोगशालाएं, ब्लड बैंक, पशु चिकित्सा संस्थान, डिस्पेंसरी और एनिमल हाउस को एक बार के लिए ₹5000 का शुल्क देना पड़ता है। अब अगर हम भारत के अलग-अलग शहरों की बात करें, तो हर जगह बायोमेडिकल वेस्ट को लेकर उनकी अलग दिक्कतें हैं। बैंगलोर में कई सरकारी अस्पताल किफायती दरों पर कचरे के निपटान में संघर्ष कर रहे हैं। और वजह यह है कि यहां शहरी और ग्रामीण जिलों में बायोमेडिकल वेस्ट निपटान करने वाली कंपनियों की संख्या बहुत कम है। गोवा में 2021 में एक बायोमेडिकल वेस्ट उपचार संयंत्र (treatment plant) खोला गया था, लेकिन 2022 तक भी कई निजी अस्पताल और क्लीनिक इसे इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। नतीजतन कई जगहों पर कचरेरा को किसी भी (unscientific) तरीके से ठिकाने लगाया जा रहा था। इसका एक बड़ा कारण था शुल्क दरों को लेकर असंतोष। पहले 30-बिस्तरों वाले अस्पतालों को ₹9.25 प्रति बिस्तर प्रति दिन देना पड़ता था, जिसे बढ़ाकर ₹9.95 कर दिया गया। वहीं सामान्य चिकित्सकों को ₹30 प्रति दिन, डेंटल क्लीनिक, डायग्नोस्टिक सेंटर, पैथोलॉजी लैब, वेटरनरी क्लीनिक और ऑर्थोपेडिक सुविधाओं को ₹60 प्रति दिन देने पड़ते थे। फिर कोविड-19 महामारी के दौरान तो इसकी कीमत आसमान छूने लगी। पहले जहां ₹50 प्रति किलोग्राम शुल्क था, वहीं महामारी के दौरान यह तीन गुना तक बढ़ गया। राष्ट्रीय अस्पताल एवं स्वास्थ्य सेवा प्रदाता प्रत्यायन बोर्ड (नेशनल एक्रेडिटेशन बोर्ड फॉर हॉस्पिटल एंड हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स, NABH) ने पाया कि छोटे क्लीनिक, जो कम कचरा उत्पन्न करते हैं, उन्हें भी BMW कंपनियों को भारी शुल्क देना पड़ रहा था। 100 किलोग्राम तक कोविड कचरे के लिए ₹11,500 तक लिया गया। अब हालात यह हैं कि छोटे शहरों में निजी अस्पताल ₹20 प्रति बिस्तर का महंगा शुल्क देने को तैयार नहीं हैं, जबकि बड़े शहरों में यही सेवा ₹6-7 प्रति बिस्तर में मिल रही है।


ऐसी स्थिति में, अस्पताल पुराने खतरनाक तरीकों को अपनाने लगते हैं जैसे अस्पताल परिसर में ही गड्ढे खोदकर कचरा दबाना या जलाना। लेकिन इसका असली खामियाजा अस्पताल नहीं, बल्कि मरीज, सफाई कर्मचारी और शहर में रहने वाले गरीब भरते हैं।


छोटे शहरों में मेडिकल वेस्ट का सही निपटान इतना मुश्किल क्यों है?


भारत में मेडिकल वेस्ट निपटान के लिए स्पष्ट नियम बने हुए हैं। गाइडलाइंस बनी हुई हैं, जिम्मेदारियां भी तय हैं और जुर्माने का भी प्रावधान है। फिर भी, छोटे शहरों में मेडिकल वेस्ट सही तरीके से डिस्पोज नहीं हो पाता है। अक्सर यह कचरा नालियों में, पानी के स्रोतों में, खुले मैदानों में या कूड़े के ढेर में जा पहुंचता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? छोटे शहरों में मेडिकल वेस्ट को सुरक्षित तरीके से मैनेज करना इतना मुश्किल क्यों बन जाता है?


बड़ी समस्याओं में से एक है बुनियादी सुविधाओं की कमी। मेट्रो शहर में मेडिकल वेस्ट के लिए कई सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। लेकिन छोटे शहरों की बात करें, तो हालात बिल्कुल अलग हैं। CBWTF या तो होता ही नहीं है, या फिर पूरे जिले में सिर्फ एक होता है। अगस्त 2024 तक, भारत के 7 राज्यों/ केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी CBWTF केंद्र नहीं था। इनमें अंडमान और निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, लद्दाख, लक्षद्वीप, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम शामिल है। अब सोचिए, अगर किसी छोटे शहर के अस्पताल को हर रोज़ संक्रमित मेडिकल वेस्ट फेंकना हो, लेकिन सही तरीके से डिस्पोज करने की सुविधा उपलब्ध ही न हो, तो क्या होगा? उन्हें मजबूरन फिर गैरकानूनी और असुरक्षित तरीके अपनाने पड़ेंगे। एक अस्पताल हर दिन कचरा पैदा करता है, उसे लंबे समय तक जमा करके नहीं रखा जा सकता। और  ऐसे में निपटान के महंगे रास्तों से परे कचरों की डंपिंग एक आसान विकल्प बन जाती है। जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 (Healthcare Waste Management Rules) के तहत सभी अस्पतालों को अपनी वेबसाइट पर कुछ जरूरी जानकारी देनी थी, जैसे कि क्या उन्हें जैव-चिकित्सा अपशिष्ट नियम, 2016 (Biomedical Waste Rules) के तहत अधिकृत किया गया है? क्या उनके पास जल और वायु प्रदूषण अधिनियम (Water and Air Pollution Acts) की मंजूरी है, हर महीने वे कितना मेडिकल वेस्ट पैदा कर रहे हैं? गाइडलाइंस के मुताबिक, 15 मार्च 2020 तक यह जानकारी सभी अस्पतालों की वेबसाइट पर उपलब्ध होनी चाहिए थी। लेकिन ज्यादातर अस्पतालों ने इसे लागू ही नहीं किया।


घरेलू और व्यवसायिक कचरों से पहले से ही जूझ रही नगर निकायों के पास बायोमेडिकल वेस्ट को सही तरीके से मैनेज करने के लिए संसाधन और व्यवस्था नहीं है। ज्यादातर छोटे शहरों और कस्बों में कूड़े से भरे डस्टबिन, सफाई कर्मचारियों की कमी और अव्यवस्थित लैंडफिल जैसी बुनियादी समस्याएं बनी हुई हैं।  ऐसे में यह उम्मीद करना कि वे बायोमेडिकल वेस्ट के सख्त नियमों को लागू करें, उनकी निगरानी करें और इसके लिए विशेष ट्रेनिंग व बुनियादी सुविधाएं विकसित करें, थोड़ा अव्यवहारिक लगता है। तिरुनेलवेली में हाल ही में ऐसा ही एक मामला सामने आया, जहां तिरुनेलवेली मेडिकल कॉलेज द्वारा बड़ी मात्रा में बायोमेडिकल, प्लास्टिक और पेपर वेस्ट जलाने पर स्थानीय लोग भड़क उठे। नाराज निवासियों ने शिकायतें दर्ज कर कार्रवाई की मांग की। लेकिन समस्या सिर्फ शिकायत दर्ज करने तक सीमित नहीं है, कार्रवाई करना अक्सर मुश्किल होता है।


बायोमेडिकल वेस्ट की समस्या सिर्फ अस्पतालों तक ही सीमित नहीं है। 


नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने कई अवैध वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट और गैरकानूनी डंपिंग साइट्स को बंद करने का आदेश दिया है, लेकिन इन नियमों का पालन करवाना अब भी बड़ी चुनौती बना हुआ है।


केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने स्पष्ट गाइडलाइंस और कड़े जुर्माने तय किए हैं। लेकिन हकीकत यह है कि कई स्वास्थ्य सुविधाएं इन नियमों की खुलेआम अनदेखी कर रही हैं और कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो रही है। उदाहरण के लिए, 2018 में कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 4,066 अस्पतालों और क्लीनिकों को कचरा प्रबंधन से जुड़े नियमों के उल्लंघन का दोषी पाया और नोटिस जारी किए। लेकिन कागज पर नियम और जुर्माने तय होने के बावजूद, कार्रवाई इतनी कमजोर होती है कि ज्यादातर अस्पताल और क्लीनिक आसानी से बच निकलते हैं। नियम तो बने हुए हैं, लेकिन न ही उन्हें सख्ती से लागू करने की इच्छाशक्ति दिखती है और न ही इसके लिए जरूरी संसाधन हैं, नतीजतन बायोमेडिकल वेस्ट का गलत निपटान बिना रोक-टोक जारी रहता है। 


2019 में, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल-NGT) ने साफ कहा था कि हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश को बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट के नियमों का पालन करना होगा और अगर कोई राज्य या केंद्र शासित प्रदेश नियमों का पालन नहीं करता है तो उसे हर महीने ₹1 करोड़ का जुर्माना भरना होगा। लेकिन जमीनी स्तर पर हालात अब भी वैसे ही हैं। चेन्नई में, तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (TNPCB) के निर्देशों के बावजूद, पंजीकृत बायोमेडिकल फैसिलिटी भी घरों से मेडिकल वेस्ट लेने से मना कर देती है। सरकार की ओर से आम जनता को खतरनाक कचरे (जैसे डायपर, सुइयां, सैनिटरी नैपकिन आदि) को अलग से इकट्ठा करने की हिदायत दी गई थी, लेकिन हकीकत में शायद ही इसका पालन किया जा रहा है।


हालांकि ऐसी लापरवाही कोई नई बात नहीं हैं। जैसा कि छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में एक मामला सामने आया था, जहां खुले में फेंके गए मेडिकल वेस्ट को जानवर खाते हुए दिखे। 


छोटे शहरों में नगरनिकायों की हालत पहले से ही खराब है। वे सामान्य कचरा प्रबंधन में ही संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में उनसे उम्मीद करना कि वे विशेषज्ञता और संसाधनों के बिना बायोमेडिकल वेस्ट की भी निगरानी करेंगे, अव्यवहारिक लगता है। यही संरचनात्मक कमी छोटे शहरों में बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट की समस्या को और बढ़ा रही है।


अस्पतालों में तो कचरों को अलग करने के नियम हैं- अलग-अलग रंग के कूड़ेदान, बैग, और निर्धारित निपटान प्रक्रिया। कई बार सफाई कर्मचारी गलती से या जल्दबाजी में सारा कचरा एक ही बैग में डाल देते हैं। जानकारी की कमी और लापरवाही के चलते जो वेस्ट पहले से अलग किया गया था, वो भी लैंडफिल में चला जाता है, जहां उसे सही तरीके से नष्ट नहीं किया जाता। कोविड-19 के दौरान यह समस्या और गंभीर हो गई थी। निजी एंबुलेंस, NGOs, और PPE किट का इस्तेमाल करने वाली संस्थाओं के पास कचरा निपटान केंद्रों से कोई सीधा संपर्क नहीं था। उनके पास केवल सामान्य कूड़ेदान ही थे, जिसकी वजह से बायोमेडिकल वेस्ट भी इन्हीं में डाला जाने लगा। आज भी कुछ अस्पतालों में ऑन-साइट इनसिनरेटर मौजूद हैं, लेकिन असली सवाल यह है-


क्या वाकई बायोमेडिकल वेस्ट वहाँ तक पहुँच रहा है? भविष्य कैसा हो सकता है?


छोटे शहरों में बायोमेडिकल कचरा कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान न किया जा सके। चीन और वियतनाम जैसे देशों ने इसे कम लागत में असरदार तरीकों से हल किया है, तो भारत क्यों नहीं कर सकता? लेकिन इसके लिए केवल नियमों पर भरोसा करना काफी नहीं होगा- सबसे जरूरी है कि हम मेडिकल वेस्ट को देखने का अपना नजरिया बदलें।


अगर हम विकेंद्रीकृत (डिसेंट्रलाइज़्ड) वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटीज को बढ़ावा दें, तो छोटे शहरों में कचरा प्रबंधन काफी बेहतर हो सकता है। अभी भी नियमों में केंद्रीकृत प्लांट्स (सेंट्रलाइज़्ड फैसिलिटीज़) को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे ऑन-साइट या क्लस्टर-आधारित समाधानों का विकास रुक सकता है। लेकिन अगर किसी जिले में सिर्फ एक बड़े प्लांट पर निर्भर रहने की बजाय छोटे-छोटे ट्रीटमेंट प्लांट बना दिए जाएँ, तो अस्पतालों के लिए कचरा निपटाना ज्यादा आसान, सस्ता और सुलभ हो जाएगा। हाल ही में एम्स दिल्ली में एक नई तकनीकी मशीन आई है- ‘सृजनम’ यह पोर्टेबल, ऑटोमेटेड वेस्ट स्टेरिलाइजेशन टेक्नोलॉजी है, जो छोटे अस्पतालों के लिए एक बेहतरीन समाधान हो सकती है। शुरुआत में यह 10 किलोग्राम प्रति दिन तक कचरा प्रोसेस कर सकती है, जिसे बाद में 400 किलोग्राम प्रति दिन तक बढ़ाया जा सकता है। अगर इसे छोटे अस्पतालों और हेल्थकेयर सेंटर्स के हिसाब से बनाया जाए, तो बड़े प्लांट्स पर निर्भरता घटेगी और निपटान भी लोकल स्तर पर हो जाएगा।  एक अध्ययन के अनुसार, अस्पतालों में प्रति बेड प्रतिदिन आधा से एक किलोग्राम मेडिकल वेस्ट निकलता है। यानी, अगर किसी छोटे शहर के एक अस्पताल में 100 बिस्तर हैं, तो वह हर दिन 50-100 किलोग्राम कचरा उत्पन्न करेगा, जिसे ‘सृजनम’ अपनी पूरी क्षमता के केवल एक-चौथाई हिस्से पर भी आसानी से मैनेज कर सकती है। यह सुविधा टियर-2 और टियर-3 शहरों के लिए बहुत फायदेमंद हो सकता है, जहाँ छोटे क्लीनिकों से लेकर जिला-स्तरीय क्लस्टर तक में इस सिस्टम को अपनाया जा सकता है, जिससे खुले में कचरा फेंकने या जलाने जैसी समस्याओं से बचा जा सकेगा। अगर बात करें वियतनाम की, जिसने विकेंद्रीकृत कचरा प्रबंधन में शानदार मिसाल पेश की है, जिसे अपनाकर भारत भी इस समस्या से निपट सकता है। यहाँ स्वास्थ्य कचरा प्रबंधन नियमों ने उपचार और निस्तारण के लिए तीन तरह के मॉडल अपनाए: ऑन-साइट ट्रीटमेंट फैसिलिटी (अस्पतालों में ही कचरा ट्रीटमेंट की सुविधा), अस्पतालों के क्लस्टर के लिए ट्रीटमेंट फैसिलिटी (कई अस्पतालों के लिए साझा ट्रीटमेंट प्लांट) और केंद्रीकृत ट्रीटमेंट प्लांट (जहाँ बड़े पैमाने पर मेडिकल वेस्ट प्रोसेस होता है)। इस मॉडल ने अलग-अलग अस्पतालों और भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से समाधान दिए। यह जानकारी ज्यादातर परियोजना पूरी होने की रिपोर्ट और उसकी समीक्षा से मिली है, फिर भी बुनियादी सुविधाओं से जुड़े परिणाम उपयोगी हैं। रिपोर्ट्स बताती है कि इस सिस्टम के चलते अस्पताल के स्टाफ में संक्रमण 12% कम हुआ, एंटीबायोटिक्स लेने वाले मरीजों की संख्या 50% घटी और 95% स्थानीय लोगों ने इसे सकारात्मक प्रतिक्रिया दिया।


आर्थिक मदद से बदलाव मुमकिन है। अगर छोटे अस्पतालों के लिए मेडिकल वेस्ट डिस्पोजल की फीस भरना मुश्किल हो रहा है, तो सरकार इसमें सब्सिडी देकर राहत दे सकती है। दिल्ली सरकार पहले से ही बायोडिग्रेडेबल वेस्ट-टू-बायोफ्यूल प्लांट्स को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी प्रोग्राम चला रही है। इसके तहत गैर-व्यावसायिक संस्थानों को 33.3% (अधिकतम ₹5 लाख) और व्यावसायिक सेटअप्स को 33% (अधिकतम ₹10 लाख) तक की सब्सिडी मिल रही है। यही मॉडल छोटे शहरों के बायोमेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट के लिए अपनाया जा सकता है, जिससे अस्पतालों पर आर्थिक बोझ कम होगा और कचरा निपटान की व्यवस्था बेहतर बनेगी। इंडियन सोसायटी ऑफ हॉस्पिटल वेस्ट मैनेजमेंट के अध्यक्ष प्रो. अशोक के. अग्रवाल इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कई सरकारी अस्पतालों के पास  CBWTF की फीस भरने के लिए बजट ही नहीं होता है। अगर सरकार इस क्षेत्र में सीधी सब्सिडी या अलग से फंड आवंटित करे, तो यह समस्या काफी हद तक हल हो सकती है।


बायोमेडिकल वेस्ट सिर्फ अस्पतालों की जिम्मेदारी नहीं है।


भारत के छोटे शहरों में बायोमेडिकल वेस्ट सिर्फ एक पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी बन चुका है। अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो गलत तरीके से फेंका गया मेडिकल वेस्ट धीरे-धीरे हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन जाएगा और गंभीर स्वास्थ्य जोखिम खड़े कर देगा। अब लापरवाही की नहीं बल्कि कार्रवाई की जरूरत है।


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