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मेरा गाँव, मेरा शिक्षक।

  • connect2783
  • Sep 30
  • 8 min read

Special Mention- Hindi, Writing Contest 2025

By Divyanshi Ratava

City: Tal Chaapar, Rajasthan


सारांश: चौदह साल बाद शहर की भाग-दौड़ और इंस्टाग्राम की दुनिया से दूर, जब लेखिका ताल छापर लौटीं, तो बस की बदबूदार सीट पर बैठकर भी उन्हें सुकून मिला। वहाँ उन्होंने देखा कि गाँव के लोग आज भी काला चिटका हिरणों के लिए अपनी सहूलियत छोड़ लंबा रास्ता अपनाते हैं। मिट्टी के कमरों में उन्हें वह शांति मिली जो शहर नहीं दे पाता और बिना किसी रिश्ते के भी अपनापन महसूस हुआ। लेखिका की इस यात्रा में और क्या-क्या गहरे सबक छिपे हैं? क्या यह गाँव आपको भी आपके जीवन का असली मतलब सिखा सकता है? जानने के लिए इस आत्मीय लेख को पढ़ें।

आधुनिक बढ़ते ज़माने और शहर की भीड़ के बीच बस स्टैंड पर बैठकर मैं इंस्टाग्राम देख रही थी, कानों में लगे ईयरफोन और फोन की स्क्रीन पर मेरी उंगलियां दोनों ही शहर के शोर को अनसुना करने में काफी काम आते हैं। बस की टिकट लेने के लिए मैंने जैसे ही एक कान से ईयरफोन हटाया वैसे ही ट्रैफिक में फसी गाड़ियों के शोर में दूसरे ईयर फोन का संगीत दब गया, मगर टिकट लेकर जैसे ही मैं ईयरफोन को कान के पास लेकर गई, गाड़ियों की आवाज को चीरते हुए एक राजस्थानी संगीत मेरे कानों में पड़ा, उसे सुनते ही मेरे पैर थोड़ी देर रुक से गए, फोन पर नजर डाल कर देखा तो राजस्थान टूरिज्म के इंस्टा पेज पर मेरे छोटे से गांव ताल छापर के बारे में लिखा हुआ था। मैं स्टेशन की सीट पर बैठकर घंटो गांव की टिकट को देखती रही, न जाने कब मैंने ईयरफोन को सीट पर रख दिया।

 

फोटो स्रोत: लेखक
फोटो स्रोत: लेखक

दस जून को करीब सुबह आठ बजे विवेक एक्सप्रेस से मैं राजस्थान के सुजानगढ़ गांव में पहुंची। सोलह घंटे के सफ़र से मैं इतना थक चुकी थी कि स्टेशन पर उतरते ही मैं अपना सामान ढोने के लिए कुली को ढूंढने लगी, तभी मेरी नज़र एक औरत पर पड़ी जो एक भारी सा अनाज का बोरा अपने माथे पर लेकर, एक हाथ से अपने बच्चों को गोदी में उठाए चल रही थी,

यह देखकर मुझे एहसास हुआ कि शहर ने हमको इतना आरामदायक बना दिया है कि हम हमारा खुद का बोझ भी नहीं ढो सकते।

मेरा हल्का सा बैग कंधों पर डालकर मैं स्टेशन से बाहर आई, बाहर निकलते ही मुझे सुनाई दिया, “ताल छापर, छापर, छापर, ताल छापर" बस के आगे भीड़ जमा हो गई थी, मैं भाग कर भीड़ के साथ बस में चढ़ गई, और एक खिड़की वाली सीट पर बैठ गई। भीड़ की वजह से बस में बहुत बदबू आ रही थी, मैंने अपने बैग से मास्क निकालकर पहन लिया। मेरे पास में एक औरत बैठी थी जो इशारों में कुछ समझाने की कोशिश कर रही थी, और पास में खड़ा उसका पति उसके इशारे समझ रहा था, मैंने हैरानी से उसके पति की ओर देखा तो उन्होंने मेरी तरफ हंसते हए देखकर कहा कि यह बोल नहीं सकती, मैंने उस औरत की तरफ देखा, उसे देखकर महसूस हुआ कि कौन कहता है मासूमियत केवल बच्चों में ही होती है? उस औरत की आंखों में और उसके पति के प्यार में बहुत प्यारी मासूमियत दिख रही थी मुझे। उसने मुझे हाथों से इशारा किया मेरी आखें उस औरत पर ही टिकी थी, और मेरे कान उसके पति के समझाते हुए शब्दों को सुन रहे थे। मैं उनको देखकर हंस नहीं पा रही थी क्योंकि शहर में अनजान से तो दूर, इंसान कभी अपनों से भी बात करने का समय नहीं निकालता। लेकिन उन दोनों के हंसते चेहरे देख कर मैंने अपना मास्क हटा लिया और मैं भी हंसने लगी।

 

हंसते-हंसते मेरी नजर खिड़की के बाहर गई, बाहर मुझे डूंगर की पहाड़ियां दिख रही थी। डूंगर, सुजानगढ़ और छापर के बीच में आने वाली एक पहाड़ी है, जहां हमारे इष्ट देव बालाजी का मंदिर है। करीब तीन सौ सिड़ियाँ चढ़कर उस मंदिर में जाना होता है, रेतीले पहाड़ राजस्थान की प्रकृति को पीला रंग दे रहे थे। शहर की ऐ.सी. वाली गाड़ियों में सुकून के लिए ईयरफोन डालना पड़ता है, क्योंकि बस की खिड़की से केवल बड़ी-बड़ी बिल्डिंग दिखती है और दूसरी तरफ यहां गांव की बदबूदार बस में भी कितना सुकून है। देवाणी से जाने वाले रास्ते को काटते हुए बस ने रामपुरा गांव से जाने वाला रास्ता लिया, इसके पीछे मानवता को दर्शाने वाली सबसे सुंदर कहानी है। आज से चौदह साल पहले जब मेरा बचपन मेरे गांव में पल रहा था, तब नानी के गांव से आते हुए बस हमेशा देवाणी वाले रास्ते से जाती थी, एकदम टूटा फूटा रास्ता था जो करीब 15 मिनट में हमें गांव पहुंचा देता था। रास्ता इसीलिए टूटा फूटा नहीं था क्योंकि वह गांव है, बल्कि इसीलिए टूटा हुआ था क्योंकि उस पूरे रास्ते में मेरे गांव का एक हिस्सा ताल छापर है, एक अभ्यारण। 

एक ऐसा अभ्यारण जहां दुनिया के सबसे सुंदर काला चिटका हिरण देखने का मिलते है, और यह जो सड़क है वह इन हिरन के घर के बीचों बीच बनाई गई है, जहां हिरण घूमते रहते हैं। उन जानवरो को कोई बस या गाड़ी से हानि न पहुंचे इसलिए सरकार ने उस सड़क को कभी सही किया ही नहीं।

आज चौदह सालों बाद जब मैं गांव आई हूं, तब यह जानकर अपने गांव वालों की सोच पर गर्व सा महसूस हुआ कि इंसान ने अपने आप को तकलीफ देकर हमारे गांव की शान और उन जानवरों की जिंदगी बचाने के लिए लंबा रास्ता अपना लिया। यदि यह गांव शहर बन गया होता तो ताल छापर केवल बिल्डिंगों से भर गया होता।

 

यह सब सोचते हुए करीब पैतालिस मिनट में मैं पहुंचती हूं अपने गांव के अंदर, छापर में। गांव की सरकारी अस्पताल के सामने बस रूकती है, मैं अपना सामान लेकर उतरती हूं और शहर से लाया हुआ वह मास्क ना जाने कब मेरी सीट के ऊपर ही रह जाता है मुझे पता ही नहीं चलता। गांव का हर एक रास्ता मुझे आज भी अच्छे से याद था। मेरे गांव में टेंपो नहीं चलती, लोग इतने स्वस्थ होते हैं कि चलकर ही रास्ता पार कर लेते हैं। तो मैं भी गैरेज वाले  रास्ते से चलकर जाने लगी। वहां रास्ते में हनुमान जी का मंदिर आता है, मैं मंदिर में दर्शन करने चली गई, और मैंने  देखा कि गांव के मंदिरों में बिल्कुल गंदगी नहीं फैलाई जाती, कोई भी तरह के फल-फूल अगर भगवान को चढ़ाए  जाते हैं, तो वह पंडित जी को दे दिए जाते हैं। श्रद्धा का भी एक सुंदरअस्तित्व मेरे गांव के मंदिर में देखने को मिलता  है।


मंदिर से निकलकर मैं संपत पानवाले की दुकान से होते हुए घिन्दड़ वाली गली से जा रही थी। हां, घिन्दड़ मतलब राजस्थान का एक लोक नृत्य, जो होली के पर्व पर होता है। जिसमें सभी आदमी अलग-अलग रूप बनाकर, कोई 'मेरी' बनता है यानी की लड़की, तो कोई जोकर बनकर एक बड़ा सा घेरा बनाकर नाचते हैं। घरों की छत पर लड़कियां और औरतें उन सबको देखती है। यह हर होली से पहले एकादशी को शुरू होता है, और होली के दो दिन बाद खत्म होता है। पिछले चौदह सालों में मैंने होली का त्योहार कभी  देखा ही नहीं, क्योंकि शहर में होली  पानी की बर्बादी करके खेली जाती है, जबकि मेरे गांव में हम केवल रंगों से होली खेला करते हैं। वहां से निकलकर मैं लकी अंकल की दुकान पर पहुंची। लकी उनकी दुकान का नाम था, वह छापर के नहीं थे बल्कि बिदासर के थे, मगर पिछले पचीस सालों से छापर में कॉस्मेटिक की दुकान लेकर बैठे हैं। मैंने उनके पैर छुए, मुझे ये बात अच्छी तरह याद है कि हम गांव में सबके पैर छुआ करते थे, बिना कोई रिश्ता पूछे। यही तो वहां के लोगों के बीच प्यार का संबंध है। उन्होंने मुझे पहचान लिया यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई। बातें करते हुए तांगा की बात निकली, तब  उन्होंने बताया कि गाँव में जो तांगे चलते थे वह बंद हो गए है, लेकिन एक बहुत पुराने तांगा वाले अंकल आज भी अपना तांगा चलाते हैं। 

कितनी अजीब बात हैं ना, गाँव के लोग केवल जरूरतमंद चीजों का ही इस्तेमाल करते हैं, शहर के लोगों की तरह फ्यूचरिस्टिक नहीं बनना चाहते,धरती की  सुंदरता को मारना नहीं चाहते। 

दुकान से आगे जाते हुए मेरी नज़र बाखल पर पड़ी, बाखल मतलब सोसाइटी जिसमें करीब पांच बंगलो है। मैं उसके दरवाजे के पास पहुंची। बाखल से पहले जो घर है वहां बक्सरी बुआजी रहते हैं, वह ना हमारे गांव के है ना हमारा उनसे कोई रिश्ता है, मगर फिर भी हमारे परिवार ने उन्हें हमेशा बेटी का दर्जा दिया। बुआजी हर शादी में  सबसे पहले बुलाए जाते थे, और सबसे पहले उन्हें ही खाना खिलाया जाता था। हमारे गांव में ऐसी प्रथा है कि हर  त्यौहार में पहले बहन बेटियां खाना खाती है। मैं  उनसे  मिलने गई और जाकर पता चला कि उनके बेटे बहु शहर  में रहने चले गए और फूफा जी दो साल पहले गुजर गए, भुआ अपने गांव जाने की बजाय यहां रहती है, क्योंकि शादी के बाद वह हमेशा से हमारे परिवार के साथ ही रहती आई है, यहाँ उनके एक बेटी भी है, उषा जीजी जिनकी  शादी हो गई वह उनके भाई की लड़की थी जिसे उन्होंने हमेशा पाल-पोसकर बड़ा किया था। यह सब देखकर  मुझे सवाल हुआ कि शहर में ऐसे कोई रिश्ते देखने को क्यों नहीं मिलते? बुआ का आशीर्वाद लेकर मैं बाखल में गई, वहां पांच गाये यहां से वहां घूम रही थी और तीन खरगोश भी थे, वह गाये मेरे बड़े पापा रखते हैं। मेरे बड़े पापा अपनी पूरी जिंदगी बैंगलोर में गुजार कर आए है और अब आखरी समय वह गांव में बिताना चाहते हैं। हमारी  बाखल में पांचो घर हमारे परिवार के ही है, सब मेरे पर दादाजी का परिवार है। उन जानवरों को यूं घूमते देखकर  मुझे एहसास हुआ कि शहर में लोग पालतू जानवर रखते हैं मगर हमेशा उन्हें बांधकर, उनके गले में फंदा डालकर, शायद इसीलिए क्योंकि वह खुद भी शहर की दुनिया में बंद गए हैं। हमारी बाखल में सड़क नहीं है, वहां केवल  मिट्टी डाली हुई है , जो मैं बचपन में बहुत खाती थी। मेरे घर की बनावट भी कुछ इसी तरह की है, जहां पीछे वाला  कमरा और उसके ऊपर छत वाला कमरा मिट्टी का बना है।जिसे घर को सही करते समय दादा ने तोड़ने से मना कर दिया था। वह दोनों कमरे आज भी सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडे रहते हैं।

 

मुझे अब भी याद है की शादियों में हम दादा की फैमिली के पैतीस लोग इस छोटे से चार कमरे के घर में बहुत ही आराम से रहते थे। क्योंकि गांव में शहर की लग्जरियस जिंदगी जीने का सपना कोई नहीं देखता था। यहां लोग  सिर्फ अपनापन देखते हैं, अपनों में भी और पराया में भी। हमारे घर के पास वाले घर को देखकर मुझे वह घटना  याद आ गई, जो मेरी दादी मुझे सुनाया करती थी। जब दादी की शादी हुई थी, आजादी से पहले तब बाखल के  ऊपर से बड़े-बड़े विमान जाते थे, बिजली चली जाती थी, और वह पास वाले घर के वहां एक बड़ी सी हवेली थी, जिसमें मेरे परदादा का पीचेतर लोगों का पूरा परिवार रहता था। एक दिन वह हवेली भूकंप से गिर गई जिसमें एक बकरी और मेरी दूर की एक दादीजी और उनका बेटा मर गया था। उनके पति यानी मेरे दूर के दादाजी उसी दिन से पागल हो गए। गांव में भी सच्चे प्यार की कहानी पनपती है, बस कोई दूर तक उन्हें सुनने के लिए पहुंचता नहीं।

 

फिर मैं अपने घर गई मेरे ताऊजी से मिली जो पांच साल पहले दिल्ली से गांव में रहने आए। ताऊजी ने मुझे देखते  ही कहा, "मेरा रंग भूरा है, आंखें और बाल भी, इसलिए मेरे परिवार के सभी लोग मुझे भूरा और उससे भी ज्यादा प्यारा नाम ' छोटू' कहकर बुलाते हैं, क्योंकि मैं अपने दादा के परिवार की सबसे छोटी बेटी हूं। शहर के पेटनेम और गांव में प्यार से बुलाए जाने वाले नाम में बहुत बड़ा अंतर है। अंतर है, फैशन और अपनेपन का। शहर के लोग फैशन समझकर नाम को तोड़ मरोड़ देते हैं और वह भी अंग्रेजी में, गांव के लोग अपनेपन से वह नाम निकालते हैं, जो उनके दिल से निकलता है।

 

यहां तक के सफर में दोपहर के एक बज गए। नहा धोकर मैं आंगन में खाना खाने बैठी बाजरे की रोटी और उस  पर सफेद गुड़ और घी, ये हैं मेरे गांव का प्रख्यात खाना, जो सेहत के लिए भी बहुत अच्छा है। सुसा रोटी जो बाजरे की बनती है, वह गांव का सेहतमंद नाश्ता है। उसके बाद सामने वाले घर में इंद्र दादोजी रहते हैं, मैं उनसे मिलने गई। वह बचपन में हमें मिट्टी में लिखकर पहाड़े सिखाया करते थे। उनकी पत्नी छोटी उम्र में ही मर गई, और उनकी मां एक सौ एक साल तक जिंदा रही। दादाजी ने अपनी पूरी जिंदगी केवल अपनी मां की सेवा करने में गुजारी। मां की इज्जत उनसे ज्यादा और कोई नहीं सिखा सकता मुझे। दोपहर में अक्सर सब सो जाते हैं, मैं भी छत वाले कमरे में गई, वहां 2012 में मेरे दादाजी ने दिवाली पर जो माताजी बनाए थे, वह आज भी वैसे ही बने दिखे। उसे देखकर मुझे दिवाली का पर्व याद आ गया। जब हम दिवाली से पहले दशहरा बनाने के लिए सभी बच्चे मिलकर रावण बनाते थे और उसे जलाते थे।उसके बाद दिवाली पर पूरा घर दीपक से सजाकर गंगा जमुना नामक फटाके छुड़ाया करते थे। दिवाली पर हम सब साथ में कोई मिठाई नहीं बल्कि  लापसी खाते थे। छोटी-छोटी चीजे गांव की जिंदगी को आसान बनाती है।

 

शाम को मैं दूसरी बाखल में गई। वहां मैं मेरी जिंदगी की सबसे पहली दोस्त जो रिश्ते में मेरी बहन भी लगती है, उससे मिली। शहर के हजार दोस्त भी मेरी उस दोस्त की जगह कभी नहीं ले पाए। उसकी शादी होने वाली हैं, वह बहुत खुश है। क्या अरेंज मेरेज सच में इतना प्यारा होता है? मैंने शहर में अरेंज मेरेज कभी देखा ही नहीं। रात  को  घर पर अरुणा बुआजी मिलने आए, वह हमारे गांव की इकलौती नर्स हैं जिन्होंने हम सब की डिलीवरी की  है। उनके पति से तलाक़ लेकर वह हमेशा से अपनी मां के यहां रही। अपनी मां की मौत होने पर वह खुद उन्हें कंधा देकर शमशान में जलाने गई थी। और हमारे गांव के सभी गरीबों का आज तक मुफ्त में इलाज करती है।

रात को मैं छत पर सोई। बहुत सालों बाद मैंने तारे देखे, प्रदूषण कम होने की वजह से आज भी मेरे गांव में चांद और तारे दिखते हैं । रात को आसमान अंधेरे से भर जाता है। 

इसीलिए  क्योंकि गांव के लोग दूर बाजार जाने से लेकर गांव के बाहर बनी स्कूल तक पैदल ही चलते हैं । मेरे घर  से डेढ़ किलोमीटर दूर गांव के बाहर आदर्श विद्या मंदिर विद्यालय है, जहां में चौथी कक्षा तक पढ़ी हूं। सभी बच्चे वहां तक पैदल जाते हैं, और तो और पूरे गांव में  एक ही मार्केट है, चोपड़ा बाजार । जहां गणगौर, जो राजस्थान का सबसे नामी त्यौहार है वो मनाया जाता हैं, वहां मेला  भी लगता है। मिठाई में मलाई के लड्डू आज भी उसी मार्केट की एक पुरानी दुकान मे मिलते है। यह सब सोचते-सोचते मुझे कब नींद आ गई पता ही नहीं  चला, मगर  आज की रात मुझे सबसे ज्यादा सुकून भरी नींद आई  थी।

 

गांव ने मुझे एक अच्छा इंसान बनाया, भावनाओं में बहने से लेकर भावनाओं को समझना सिखाया। प्यार करना  और प्यार बांटना सिखाया। गांव ने मुझे जिंदगी जीने का असली मतलब सिखाया, जो शहर कभी नहीं सिखा पाया।

लेखक के बारे में:

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दिव्यांशी रतावा

दिव्यांशी रतावा का जन्म राजस्थान के चुरू जिले में हुआ था, लेकिन 13 साल की उम्र में वे गुजरात के सूरत शहर में आ गईं। वह वर्तमान में 21 वर्ष की हैं और उन्होंने परफॉर्मिंग आर्ट्स (नाटक) में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। वर्तमान में, वह शब्द स्पर्श प्रोडक्शन हाउस के साथ एक अभिनेता, लेखिका और रंगमंच कलाकार के रूप में सक्रिय रूप से काम कर रही हैं। दिव्यांशी को किताबें पढ़ने का बहुत शौक है और उन्हें निबंध, नाटक और कविताएँ लिखने में आनंद आता है। वह इस प्रतियोगिता के माध्यम से अपने गाँव के बारे में लिखने का अवसर पाकर बहुत खुश हैं, क्योंकि इससे उन्हें कई वर्षों बाद अपने गाँव में फिर से जाने और अपनी जड़ों से जुड़ने का मौका मिला।


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