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पहचान के धागे

  • connect2783
  • Jan 8
  • 4 min read

Updated: Jul 16

जब आप कांचीपुरम, फिरोज़ाबाद या खुर्जा का नाम सुनते हैं, तो सबसे पहले आपके मन में क्या आता है? शायद कांजीवरम साड़ियां, कांच की चूड़ियां या चीनी मिट्टी से बनी वस्तुएं (सिरेमिक)। पूरे भारत में छोटे, पुश्तैनी व्यवसाय और कुटीर उद्योग अपने शहरों के साथ इतनी गहराई से जुड़े हुए हैं कि दोनों को अलग करना काफी मुश्किल काम है। हैंडलूम और इसी तरह के क्षेत्रों के छोटे व्यवसाय सिर्फ़ आर्थिक इकाइयां नहीं हैं, बल्कि ये छोटे शहरों की आत्मा हैं।


Source: Annie Spratt, Unsplash
Source: Annie Spratt, Unsplash

जब आप कांचीपुरम, फिरोज़ाबाद या खुर्जा का नाम सुनते हैं, तो सबसे पहले आपके मन में क्या आता है? शायद कांजीवरम साड़ियां, कांच की चूड़ियां या चीनी मिट्टी से बनी वस्तुएं (सिरेमिक)। पूरे भारत में छोटे, पुश्तैनी व्यवसाय और कुटीर उद्योग अपने शहरों के साथ इतनी गहराई से जुड़े हुए हैं कि दोनों को अलग करना काफी मुश्किल काम है। खासकर हथकरघा क्षेत्र में ये उद्योग भारत की समृद्ध विरासत को सहेजने का काम करते हैं। ये केवल कपड़े नहीं, बल्कि संस्कृति और पहचान की कहानियां भी बुनते हैं। ये व्यवसाय स्थानीय अर्थव्यवस्था को जीवंत बनाए रखते हैं और पीढ़ियों से कारीगरों को उनके हुनर से पहचान दिलाते रहे हैं। लेकिन बदलते समय के साथ परंपराओं को संरक्षित करते हुए आधुनिक बाजार की मांग के साथ तालमेल बिठाना इनके लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है।


खूबसूरत बनारसी साड़ियों से लेकर रंग-बिरंगे कलमकारी प्रिंट तक भारत का हथकरघा क्षेत्र अकेले ही 35 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार देता है, जिनमें 72% महिलाएं हैं। यह क्षेत्र देश के कुल कपड़ा उत्पादन में 15% योगदान देता है और साथ में यह दुनिया का सबसे बड़ा कुटीर उद्योग है। लेकिन देश की अर्थव्यवस्था में इतना बड़ा योगदान देने के बावजूद कच्चे माल की बढ़ती कीमत, मशीनों से बढ़ती प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ताओं की बदलती पसंद ने बुनकरों और कारीगरों को बुरी तरह प्रभावित किया है।

उदाहरण के लिए, कांचीपुरम में साड़ियों की बुनाई का खर्च कई गुना बढ़ गया है, क्योंकि ज़री के काम में इस्तेमाल होने वाले सोने और चाँदी के दाम आसमान छू रहे हैं। इसी तरह भागलपुर के प्रसिद्ध तसर सिल्क के लिए अब आयातित सामग्री पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे स्थानीय आपूर्ति शृंखला (सप्लाइ चेन) कमजोर पड़ती जा रही है। इन सभी समस्याओं के बीच, मजदूरों की कमी भी एक बड़ी चुनौती है क्योंकि नई पीढ़ी स्थाई नौकरियों की तलाश में बुनाई के काम को अपनाने से हिचक रही है। इसके अलावा, बिचौलियों की भूमिका स्थिति को और खराब कर देती है। वे अक्सर मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा ले लेते हैं, जिससे कारीगरों को उनकी कुशलता और योग्यता अनुरूप मेहनताना नहीं मिल पाता है। यह वित्तीय बोझ बढ़ाता है और पारंपरिक शिल्प को आधुनिक अर्थव्यवस्था में बनाए रखना और भी मुश्किल बना देता है।


Source: Tanushree Mitra, Unsplash
Source: Tanushree Mitra, Unsplash


लेकिन हालात पूरी तरह निराशाजनक नहीं हैं। कारीगर और छोटे व्यवसाय इन समस्याओं से डटकर निपट रहे हैं।

सूता और दीवा जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म कारीगरों और उपभोक्ताओं के बीच सीधा संपर्क बना रहे हैं, जिससे बिचौलियों की भूमिका खत्म हो रही है और कारीगरों को ज्यादा मुनाफा मिल रहा है। सरकारी ई-मार्केटप्लेस (GeM) और स्थानीय सहकारी समिति जैसे प्रयासों ने स्थानीय बुनकर को अपने उत्पादों का वैश्विक मंच पर प्रदर्शित करने और अपनी कला को संरक्षित करने का अवसर दिया है। वस्त्रों के लिए ट्रेसबिलिटी चिप्स आदि जैसे टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन (तकनीकी नवाचार) प्रमाणिकता को बनाए रखने में मदद कर रहे हैं।


भौगोलिक संकेतक (जीआई) टैग एक और प्रभावी साधन हैं। दार्जिलिंग चाय, पोचमपल्ली इकत और कांचीपुरम साड़ियों जैसे उत्पादों को जीआई टैग का लाभ मिला है, जो उनकी प्रमाणिकता को सुरक्षित रखते हैं और उन्हें वैश्विक बाजारों में विशेष स्थान दिलाते हैं। हालांकि, जीआई टैग की क्षमता का अभी तक पूरा उपयोग नहीं हो पाया है, खासकर छोटे समुदायों को सशक्त बनाने में अभी यह काफी पीछे है। जीआई पंजीकरण प्रक्रिया को सरल बनाना और प्रमाणन के बाद ठोस सहायता सुनिश्चित करना आदि तरीके इस टैग से मिलने वाले आर्थिक और सांस्कृतिक फायदे को बढ़ा सकता है। इससे कारीगरों को नकली और सस्ते उत्पादों से मुकाबला करने में मदद मिलेगी और आजीविका को भी सुरक्षित किया जा सकेगा।


राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम (एनएचडीपी) और यार्न सप्लाई स्कीम (वाईएसएस) जैसे सरकारी कार्यक्रम कारीगरों को कुछ सहूलियत प्रदान करते हैं। हालांकि सरकार के कुछ छोटे कदम, जैसे जीएसटी अनुपालन को आसान बनाना, बेहतर वित्तीय प्रोत्साहन देना और कच्चे माल के उत्पादन में निरंतर निवेश करना आदि भी इन समृद्ध हथकरघा बाजारों के लिए एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं।

इसके अलावा, वैश्विक पहचान इन उत्पादों की मांग को बढ़ा सकती है। भारत द्वारा "भारत के प्रतिष्ठित साड़ी बुनाई क्लस्टर्स" को यूनेस्को की विश्व धरोहर अस्थायी सूची में शामिल करने के लिए किया गया प्रयास एक सकारात्मक कदम है। यदि इसे स्वीकृति मिलती है तो यह पारंपरिक बुनाई केंद्रों को वैश्विक मंच पर उजागर करेगा और कारीगरों की आजीविका को और अधिक सुरक्षा मिलेगी।


नीतियों और वैश्विक पहचान से आगे इन पारंपरिक शिल्पों का संरक्षण समुदायों की ताकत में ही निहित है। त्योहार, व्यापार मेलों और स्थानीय बाजारों की भूमिका कारीगरों और उपभोक्ताओं के बीच की दूरी को कम करने में महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, दीवाली के दौरान पारंपरिक कांजीवरम और बनारसी साड़ियों की बिक्री कुल वार्षिक परिधान मांग का लगभग 35% होती है। उपभोक्ताओं में जागरूकता बढ़ाने और हस्तनिर्मित उत्पादों के लिए ये प्रयास इन पारंपरिक शिल्पों को आधुनिक बाजार में प्रासंगिक बनाए रखने में मदद कर सकते हैं।


हथकरघा और इससे जुड़े क्षेत्रों में छोटे व्यवसाय केवल आर्थिक इकाइयां नहीं हैं बल्कि ये छोटे शहरों की धड़कन हैं। इनका अस्तित्व बचाना भारत के इतिहास और पहचान के अभिन्न अंग को संरक्षित करने जैसा है। इन्हें समर्थन देना केवल अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना नहीं है, बल्कि कई कहानियों, विरासत और जीवन को सँजोने का प्रयास है।


यदि आपको भी इन छोटे व्यवसायों का जादू आकर्षित करता है, तो हमारा पूरा लेख पढ़ें: “पहचान के धागे: स्थानीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति को सहेजते छोटे व्यवसाय”






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