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बदनामी से सहयोग तक

  • connect2783
  • May 10, 2024
  • 8 min read

Updated: Jul 16

भारत एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है, जहाँ विशेषज्ञों की भारी कमी और इलाज की बड़ी खाई बनी हुई है। सरकार की कोशिशों के बावजूद, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सामाजिक बदनामी (stigma) और जागरूकता की कमी अब भी बड़ी बाधाएँ हैं।

हालांकि, टेली-मेंटल हेल्थ सेवाओं और एआई आधारित प्लेटफॉर्म जैसे डिजिटल उपाय उम्मीद की किरण दिखा रहे हैं। लेकिन क्या ये तकनीकी प्रयास इतने प्रभावी साबित होंगे कि देश के हर कोने तक मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं पहुँच सकें? या फिर ज़मीनी स्तर पर समुदाय आधारित पहल और जागरूकता ही इस बदलाव की असली कुंजी है?


Source: Unsplash
Source: Unsplash

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक मानसिक स्वास्थ्य समग्र कल्याण की एक स्थिति है, जहाँ व्यक्ति अपनी काबिलियत को पहचानता है, हर दिन के तनाव को प्रभावी ढंग से संभालता है, सार्थक गतिविधियों में शामिल होता है और अपने समुदाय को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। अच्छा मानसिक स्वास्थ्य उचित मनोवैज्ञानिक संसाधनों की जरूरत को ध्यान में रखता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लोगों को इस तरह की स्थिति बनाये रखने के लिए जरूरी सहायता मिल सके।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक हर 1 लाख लोगों पर 3 मनोचिकित्सक और 1.5 मनोवैज्ञानिक की जरूरत है। हालांकि भारत में यह आंकड़े कुछ और ही कहते हैं, यहाँ 1 लाख लोगों के लिए कम से कम एक मनोचिकित्सक भी नहीं हैं।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक मौजूदा समय में देश भर में केवल 898 मनोवैज्ञानिक हैं जबकि देश की स्वास्थ्य प्रणाली को 20,250 मनोवैज्ञानिकों की जरूरत है। भारत में डिप्रेशन से पीड़ित 5 करोड़ लोगों में से 10% से भी कम को उचित देखभाल मिल पाती है। इनमें से भी कोई एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो एक साक्ष्य आधारित मनोवैज्ञानिक उपचार पाता हो। कई रोगी चिकित्सा सहायता प्राप्त करने में असमर्थ हैं और इसके प्रमुख कारण हैं- जागरूकता की कमी, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों की कमी। छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों के मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में एक बहुत बड़ा अंतर है और परिणामस्वरूप 95% सामान्य मानसिक विकारों का भी उपचार नहीं हो पाता है।

स्रोत: यूथ की आवाज़
स्रोत: यूथ की आवाज़

लिव लव लाफ फाउंडेशन की तरफ से किये गए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों का नजरिया भावहीन और काफी अनजान है, लोग इसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते हैं।

ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि मानसिक रूप से बीमार लोगों में स्व-अनुशासन की कमी होती है। इससे प्रभावित लोग शर्म, परेशानी और सामाजिक अलगाव से जूझते रहते हैं। महाराष्ट्र में स्वास्थ्य सेवा के निदेशक डॉ० स्वप्निल लाले ने बताया कि आज के समय में भी इन्हीं सब कारणों से लोग मनोचिकित्सक के पास जाने से कतराते हैं।


मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी को दूर करने के लिए मेडिकल टेक्नोलॉजी का उपयोग करना काफी मददगार साबित होगा, जिसमें टेलीमेडिसिन, वर्चुअल केयर और स्मार्टफोन एप्लीकेशन जैसे कई इनोवेटिव तरीके प्रमुख होते हैं। इसके अलावा मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने के लिए शुरुआती स्तर से चिकित्सा कर्मियों की ट्रेनिंग और समुदाय की देख-रेख में होने वाले उपायों का चलन बढ़ रहा है।


क्या शहरों में रहने से हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है?

सेंटर फॉर अर्बन डिज़ाइन एंड मेंटल हेल्थ की मानें तो ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी और भी दूसरी समस्याएं ज्यादा होती है। जिसमें डिप्रेशन की आशंका लगभग 40%, चिंता की दर 20% और सिजोफ्रेनिया का खतरा दोगुना होने के साथ साथ अकेलेपन, अलगाव और तनाव की भावनाएँ भी शामिल हैं। मानसिक स्वास्थ्य विकार पर भारतीय महामारी विज्ञान अनुसंधान (इंडियन एपिडेमिओलोजिकल रिसर्च ऑन मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर) इस तथ्य को उजागर करता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 48.9% तथा शहरी क्षेत्रों में 80.6% तक मानसिक बीमारी का चलन है। ग्रामीण भारत के क्षेत्र भी इन्हीं सब डर, जागरूकता की कमी और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों तक कम पहुंच की वजह से कई अनजाने मानसिक बीमारियों से जूझते रहते हैं।


शहरी क्षेत्रों में हरे-भरे स्थानों की कमी, प्रदूषण, अर्बन हीट आइलैंड, पैदल और साइकिल यात्रियों के अनुकूल बुनियादी सुविधाओं की कमी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को बखूबी बढ़ाती है। एम्स की तरफ से दिल्ली में एक अध्ययन कराया गया, जिसमें यह बात  निकलकर आई कि 491 किशोरों में से लगभग 34% कॉमन मेंटल डिसऑर्डर के मरीज थे। इन सबका सीधा नाता प्रदूषण और हरित क्षेत्रों की कमी को बताया गया। आईक्यूएयर की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के प्रमुख 20 प्रदूषित शहरों में से 15 छोटे और मध्यम शहर अकेले भारत के हैं। जैसे-जैसे भारतीय शहरों में प्रदूषण बढ़ रहा है, कॉमन मेंटल डिसऑर्डर (सीएमडी) जैसे कि डिप्रेशन और चिंता के बढ़ने की आशंका भी जताई जा रही है।


कोटा और त्रिशुर जैसे छोटे शहरों में भी आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। सम्भव है कि इसका कारण कोचिंग सेंटरों की मौजूदगी है जो कि प्रतियोगी परीक्षाओं पर आधारित है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) 2021 के मुताबिक महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले सामने आए जबकि तमिलनाडु और मध्य प्रदेश दूसरे स्थान पर हैं। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, वाराणसी, मैनपुरी, मेरठ जैसे कई शहरों में गंभीर मानसिक विकारों में बढ़ोतरी और आत्महत्या के मामले में तेजी चिंताजनक स्थिति की तरफ इशारा करती है।


डिप्रेशन, चिंता और आत्महत्या की दर आय और रोजगार के अवसर के साथ जुड़ी होती है। अधिक आय वाले लोगों के मुकाबले सबसे कम आय वाले लोग डिप्रेशन, चिंता और कई दूसरे मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना 1.5 से 3 गुना ज्यादा बार करते हैं। इस तरह के आँकड़े निम्न-आय वर्ग के लोगों के काम और उनके मानसिक स्वास्थ्य की तुरंत जांच करने की जरूरत की ओर इशारा करते हैं।

पैगाम ने इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप बेस्ड ट्रांसपोर्ट के साथ साझेदारी कर देश भर के 8 शहरों का एक सर्वेक्षण किया, जिसमें यह बात निकलकर आई कि मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा हर रोज 10 घण्टे से ज्यादा काम करता है और हर महीने 15,000 रुपये से भी कम कमा पाता है। ये सब बातें असन्तोष का कारण बनती है और डिप्रेशन को जन्म देती है।

भारत में मानसिक स्वास्थ्य की समझ : चुनौतियाँ, कमी और सरकारी पहल

साल 2016 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे, एनएमएचएस) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की लगभग 10% आबादी को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के लिए इसे सीधे तौर पर समझने की जरूरत है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य संघ (नेशनल रूरल हेल्थ एसोसिएशन, एनआरएचए) के अनुसार भारत के छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ प्रमुख चुनौतियाँ हैं जैसे- मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच, मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की उपलब्धता, बेहतर  मानसिक उपचार कराने का सामर्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य सेवा को स्वीकारना

एनएमएचएस ने इस बात का खुलासा किया कि भारत में सीएमडी की बढ़ोतरी 5.1% थी लेकिन उपचार में कमी का प्रतिशत 80.4 था।

मिर्गी के अलावा मानसिक विकारों के उपचार में 60% से भी ज्यादा की कमी दर्ज की गई। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह सामने आई कि शराब के उपयोग जैसे डिसऑर्डर के लिए उपचार की कमी सबसे अधिक थी जिसका प्रतिशत 86% था। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक शराब और मादक द्रव्यों के सेवन से जुड़ी आत्महत्या का प्रतिशत 2017 में 5.2% था, जो साल 2022 में बढ़कर 6.8% हो गया।


सरकार ने न केवल राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (एनएमएचपी) को लागू किया बल्कि जिला स्तर पर भी जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (डीएमएचपी) की शुरुआत की ताकि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुंच को बढ़ाया जा सके। इस योजना को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के माध्यम से देश भर के 704 जिलों के लिए मंजूरी भी दे दी गई है। कई राज्य सरकारों ने मानसिक स्वास्थ्य सेवा तक लोगों की पहुंच और सामर्थ्य को मजबूत करने के लिए कई दूसरी योजनाएँ भी शुरू की हैं। गुजरात सरकार ने 'डब्ल्यूएचओक्यूआर' नामक एक टूलकिट लॉन्च किया है जिसकी मदद से लोगों को जागरूक करना, मानसिक डिसऑर्डर के शुरुआती लक्षण की पहचान करना, उपचार की कमी को कम करना और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को ट्रेनिंग दिया जा सकता है। मेहसाणा में कमजोर आबादी तक मानसिक स्वास्थ्य सेवा की पहुंच को बढ़ाने के लिए सुसाइड प्रिवेंशन एंड इम्प्लीमेंटेशन रिसर्च इनिशिएटिव (स्पिरिट) और आत्मीयता जैसे पायलट प्रोजेक्ट चलाये जा रहे हैं। आत्महत्या के बहुआयामी कारणों से निपटने के लिए साल 2022 में राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति (नेशनल सुसाइड प्रिवेंशन स्ट्रेटेजी, एनएसपीएस) की शुरुआत की गई जिसका उद्देश्य साल 2030 तक देश की आत्महत्या दरों में 10% की कमी लाना है और यह इस दिशा में उठाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम है।


छोटे शहरों में टेली-मेंटल हेल्थ सर्विस के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच

इन सबके अलावा, सरकार ने बेहतर मानसिक स्वास्थ्य सलाह और देखभाल सेवाओं तक सभी की पहुंच बढ़ाने के लिए 2022-23 के बजट में "नेशनल टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम" पेश किया है।

स्रोत: टेली मानस मध्य प्रदेश (@telemanasmp01) एक्स पर
स्रोत: टेली मानस मध्य प्रदेश (@telemanasmp01) एक्स पर

साल 2022 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन, टेली-मानस शुरू किया गया। इस पहल से महाराष्ट्र के तकरीबन 18,000 लोगों को लाभ मिला और कई छोटे शहर जैसे कोल्हापुर, पुणे, सांगली, औरंगाबाद आदि से 30% कॉल आये। साल 2023 में एम्स-भोपाल ने टेली मानस की मदद से से ही 38,000 रोगियों का उपचार किया।

कोविड महामारी के दौरान अभिनीत कुमार और डॉ० रितिक सिन्हा द्वारा "रॉकेट हेल्थ" नामक एक डिजटल इंटरवेंशन तैयार किया गया था जो कोविड रोगियों के लिए था, पर अब थेरेपी, मनोचिकित्सा सत्र, मनोवैज्ञानिकों की नेतृत्व वाले सहायता समूह, साथ काम करने वाले समूह और उनके मानसिक स्वास्थ्य के आकलन की भी सुविधा देता है।

इस ऐप का उपयोग करने वाले तकरीबन 50% लोग टियर-2 और टियर-3 शहरों से है। इसी तरह एआई द्वारा संचालित मेंटल हेल्थ सपोर्ट प्रोवाइडर, वायसा ने अपने संवादी एआई की घोषणा की है जो हिंदी में बात-चीत करने की सुविधा देगा। इसका उद्देश्य पूरे भारत के टियर-2 और टियर-3 शहरों के लोगों के बीच बेहतर सेवाओं की पहुंच में सुधार करना है।


मानसिक स्वास्थ्य की कमी को पूरा करना : भारत में इस ओर सामुदायिक सशक्तिकरण और वकालत के प्रयास


इन सबके बीच छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में आशा कार्यकर्ताओं ने मानसिक स्वास्थ्य की कमी को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गुड़गांव में लगभग 1000 आशा कार्यकर्ताओं ने डिप्रेशन के लिये 4000 से अधिक लोगों की जांच की जिनमें से 1300 रोगियों को सरकारी अस्पतालों में उचित सलाह और परामर्श के लिए चुना गया। मध्य प्रदेश सरकार ने एक एनजीओ ‘संगठ’ के सहयोग से आशा कार्यकर्ताओं को उत्तरदायित्व और अधिकार दिया है कि वे रायसेन, विदिशा और नर्मदापुरम में मानसिक संकट का सामना कर रहे लोगों की फर्स्ट रीस्पोंडर के रूप में सेवा करें।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और भावनात्मक कल्याण को प्राथमिकता देने की जरूरत को बताती है। हालांकि एनईपी  के काम करने का तरीका अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग है, लेकिन यह धीरे-धीरे स्थानीय स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताओं से निपट रहा है और इसे टियर-2 और टियर-3 शहरों तक पहुंचाने में सफल हो रहा है।

वार्षिक मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान के हिस्से के रूप में, प्रतिभागियों ने मदिकेरी में द व्हील कैफे की दीवारों पर पेंटिंग की | स्रोत: द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
वार्षिक मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान के हिस्से के रूप में, प्रतिभागियों ने मदिकेरी में द व्हील कैफे की दीवारों पर पेंटिंग की | स्रोत: द न्यू इंडियन एक्सप्रेस

मैसूर का एक संगठन माइंड एंड मैटर, मदिकेरी में बच्चों के बीच मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की बात करता है। नवंबर 2023 से ये मैसूर और कोडागु के स्कूलों में जागरूकता अभियान चला रहे हैं।

कर्नाटक के दावणगेरे में लिव लव लाफ फाउंडेशन और असोसिएशन फ़ॉर पीपल विद डिसेबिलिटी ने मिलकर एक आत्मनिर्भर समूह-संचालित मेंटल हेल्थ इंटरवेंशन शुरू करने में सफलता हासिल की। साल 2016 में शुरू किया गया यह कार्यक्रम लोगों को जागरूक करने और इसकी पहुंच बढ़ाने के लिए नुक्कड़ नाटक, दीवार पेंटिंग, मानसिक स्वास्थ्य के फ्रंटलाइन वर्कर्स की ट्रेनिंग जैसे कई तरीके अपनाकर अपने उद्देश्य को पूरा करता है।  सिजोफ्रेनिया रिसर्च फाउंडेशन (स्कार्फ) ने सामूहिक मानसिक स्वास्थ्य सेवा को और अधिक बढ़ाने के लिए आशा कार्यकर्ताओं के मॉडल पर आधारित 'मनम इनिधु' नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया। इसमें स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े शुरुआती नियम, सलाह और परामर्श देने की ट्रेनिंग दी गई।


मई 2024 मानसिक स्वास्थ्य जारूकता का महीना है, जो "आंदोलन : मानसिक स्वास्थ्य के लिए और आगे बढ़ना" थीम पर आधारित है और मानसिक स्वास्थ्य की जरूरतों को बताता है। यह महीना सभी के लिए मानसिक स्वास्थ्य के बारे में अपनी समझ बढ़ाने के लिए, झूठे डर को दूर करने और सच्चाई को अपनाने का एक बहुत बढ़िया अवसर है। आप इन अवसरों का लाभ कैसे उठा रहे हैं, हमें नीचे टिप्पणी में बताएँ!


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