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विश्व वेट-लैंड (आर्द्रभूमि) दिवस

  • connect2783
  • Feb 9, 2024
  • 5 min read

Updated: Jul 17

आर्द्रभूमि केवल पानी के जमाव नहीं हैं, बल्कि ये शहरों की ज़िंदगी के छिपे हुए स्रोत हैं! कोलकाता से गुवाहाटी और उदयपुर तक, नागरिक की रिपोर्ट और पैनल चर्चा शहरी आर्द्रभूमियों की भूमिका पर प्रकाश डालती है — कैसे यह अक्सर अनदेखी की जाने वाली पारिस्थितिकी तंत्र हमारे शहरों को पर्यावरणीय, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से सहारा देती है। जैसे-जैसे जलवायु संकट बढ़ रहा है, क्या स्थानीय नवाचार और जिम्मेदारी हमारे नजरिए को बदल कर शहरी आर्द्रभूमियों को बचा सकते हैं?


स्रोत : अलाइट इंडिया
स्रोत : अलाइट इंडिया

क्या आप जानते हैं कि हर साल 2 फरवरी को विश्व आर्द्रभूमि दिवस (वर्ल्ड वेटलैंड डे, डब्ल्यूडब्ल्यूडी) मनाया जाता है? यह 1971 में हुए अंतर्राष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमियों पर रामसर कन्वेंशन (रामसर कन्वेंशन ऑन वेटलैंड्स ऑफ़ इंटरनेशनल इम्पोर्टेंस) पर हस्ताक्षर किए जाने की याद में मनाया जाता है। इस साल पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ एनवायरनमेंट, फॉरेस्ट एंड क्लाइमेट चेंज, एमओईएफसीसी) और मध्य प्रदेश सरकार के सहयोग से इंदौर के सिरपुर झील में एक राष्ट्रीय कार्यक्रम अयोजित किया गया। इस साल विश्व आर्द्रभूमि दिवस की थीम 'आर्द्रभूमि और मानव कल्याण' ने आर्द्रभूमि की कई भूमिकाओं पर प्रकाश डाला जैसे कि बाढ़ सुरक्षा, स्वच्छ जल, जैव विविधता और मानव स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिए आवश्यक मनोरंजक अवसर।


वेटलैंड शहरों से गहराई से जुड़े होते हैं क्योंकि ये कई जीवों का आश्रय हैं और शहर के लिए जरूरी प्राकृतिक सेवाएं देते हैं।

बीते सप्ताह नागरिक ने भी अपनी रिपोर्ट “परिभाषा से संरक्षण तक: भारत के शहरी आर्द्रभूमियों पर एक अध्ययन (From Definition to Conservation: A Study on Urban Wetlands of India)” का वेब लॉन्च कर इस दिन को मनाया। इसके साथ ही "हमारे वर्तमान सोच की सीमा से परे: शहरी आर्द्रभूमि (Urban Wetlands: Beyond Our Current Thinking)" पर एक पैनल चर्चा भी आयोजित की गई। पूर्वी कोलकाता आर्द्रभूमि, उदयपुर की झीलें और गुवाहाटी में दीपोर बील जैसे तीन प्रमुख मामलों पर प्रकाश डालते हुए नागरिक की रिपोर्ट शहरी आर्द्रभूमियों को समझने के लिए एक बेहतरीन विकल्प है। रिपोर्ट में इस बात पर विस्तृत विचार किया गया है कि ऐसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को किस तरह परिभाषित किया जाता है। साथ ही साथ देश भर के शहरों में इनके प्रबंधन और संरक्षण को बाधित करने वाले चुनौतियों का भी पता लगाया गया है।


आर्द्रभूमियों का शहरों से एक मजबूत संबंध है क्योंकि ये कई तरह के जीवन रूपों को आश्रय देते हैं और एक ऐसी पारिस्थितिकी सुविधा प्रदान करते हैं जो शहरी समुदायों के लिए जरूरी है। पूर्वी कोलकाता आर्द्रभूमि इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। दुनिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली के रूप में यह कलकत्ता के 60-80% सीवेज का उपचार करती है जिससे सफाई की लागत में सालाना तकरीबन ₹4 अरब 68 करोड़ की बचत होती है।



स्रोत :  ए एफ पी , Aljazeera
स्रोत :  ए एफ पी , Aljazeera

यह एक प्राकृतिक स्पंज की तरह काम करता है और गन्दे पानी को रिसाइकिल करके भूमिगत जल को रिचार्ज करता है। यह कार्बन सिंक की तरह सुविधा देता है जो 60% से भी ज्यादा कार्बन उत्सर्जन (कार्बन एमिशन) को रोकता है। ये आर्द्रभूमि तकरीबन 50,000 किसानों का सहयोग करते हैं और शहर में मछलियों की मांग का एक तिहाई हिस्सा भी पूरा करते हैं।

शहरी आर्द्रभूमियों को जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ मानवजनित गतिविधियों का भी सामना करना पड़ता है। असम का एकमात्र रामसर साइट दीपोर बील इसका उदाहरण है। यह गुवाहाटी के लिए प्रमुख वर्षा जल भंडारण के रूप में काम करता है लेकिन इसके बावजूद इस आर्द्रभूमि को बढ़ते शहरीकरण बढ़ते शहर, औद्योगिक प्रदूषण, कचरों के निपटान की कमी और जलकुंभी के कारण कई मुसीबतें झेलनी पड़ती है। अतिक्रमण के कारण इस झील का जल क्षेत्र 7.1 वर्ग किलोमीटर से घटकर केवल 4.2 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। इस साइट को स्थानांतरित करने से पहले इसके पूर्वी भाग में पड़ने वाले बोरगांव में रोजाना 85-90% शहरी कचरा आता था। हालांकि नया डंपयार्ड (कूड़े का स्थान) अभी भी झील के 1 किलोमीटर के दायरे में ही बना हुआ है जो पहले से ही हो चुके नुकसान को और बढ़ा रहा है। 

शहरी वेटलैंड्स को अब जलवायु परिवर्तन और मनुष्य की गतिविधियों से खतरा बढ़ रहा है, जैसे कि दीपर बील का मामला है।

शहरी झीलों का अपना एक सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व होता है, खास तौर पर उदयपुर एक ऐसा शहर है जिसे "झीलों के शहर" से जाना जाता है। जबकि पर्यटन एक महत्वपूर्ण आर्थिक घटक है, बढ़ते होटल उद्योग ने उदयपुर के जल संसाधनों पर दबाव बढ़ा दिया है क्योंकि तकरीबन 78 करोड़ 50 लाख लीटर पानी की जरूरतें इसके पारिस्थितिकी तंत्र से निकालकर पूरी की जाती है। हालांकि उदयपुर के स्थानीय समूह प्रदूषण और अतिक्रमण को कम करने के लिए सक्रियता से काम कर रहे हैं। साल 1992 में स्थापित झील संरक्षण समिति (जेएसएस) एक दबाव समूह के रूप में काम करता है और सरकार द्वारा किये गए जल संरक्षण से जुड़े कामों की देखरेख करता है। इसने झील विकास प्राधिकरण और झील संरक्षण योजना को शुरू करने में भी सहायता की है। इसी तरह झील हितैषी नागरिक मंच (जेएचएनएम) ने उदयपुर में झीलों की सफाई के लिए बहुत काम किया है और इसके साथ ही इसे अदालत से भी समर्थन प्राप्त है ताकि इन कामों के लिए समय पर योजना बनाने के लिए अधिकारियों को निर्देश दिया जा सके।


स्रोत : इंडिया सी एस आर
स्रोत : इंडिया सी एस आर

नागरिक की पैनल चर्चा के दौरान जेएसएस के संयुक्त सचिव अनिल मेहता ने उदयपुर की वर्तमान स्थिति को उजागर करते हुए कहा कि अब जल संरक्षण के तरीकों में बदलाव लाना जरूरी है। जल निकायों का अलग-थलग उपचार करने के बजाय उन्होंने ऐसी चुनौतियों से समग्र रूप से निपटने की सलाह दी क्योंकि सभी जल निकाय उन समस्याओं का प्रतिबिंब हैं जिनसे बड़े बेसिन गुजर रहे हैं। उन्होंने पारिस्थितिक विकास (इकोलॉजिकल ग्रोथ), चक्रीय पारिस्थितिकी (सर्कुलर इकोलॉजी), पारिस्थितिकी-केंद्रितता (इको-सेंट्रिज्म) के दृष्टिकोण को अपनाने की बात कही और हितधारक बनने की बजाय इस मुहिम में “भागीदारी लेने” पर जोर दिया। मेहता के मुताबिक स्थानीय स्तर के प्रयासों द्वारा पारिस्थितिकी कल्याण को प्राथमिकता देने से आखिरकार मानव जाति का ही कल्याण होगा।


इसी तरह आर्द्रभूमि शोधकर्ता और पर्यावरण की समस्याओं की वैज्ञानिक समिति (साइंटिफिक कमिटी ऑफ प्रॉब्लम्स ऑफ द एनवायरनमेंट, स्कोप) के प्रोजेक्ट डायरेक्टर ध्रुवा दासगुप्ता ने भी ऐसे प्रयासों में नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर किया। उन्होंने जाने-माने इंजीनियर और इकोलॉजिस्ट ध्रुबज्योति घोष के अथक प्रयासों को बताया जिन्होंने पूर्वी कलकत्ता आर्द्रभूमि के संरक्षण में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। दासगुप्ता ने इस बात पर जोर दिया कि आर्द्रभूमि से जुड़े शोध और संरक्षण के प्रयास उन समुदायों के लिए एक मॉडल के तौर पर काम कर सकते हैं जो रचनात्मक रूप से प्रकृति के साथ रहते हैं।


उदयपुर में होटल इंडस्ट्री की बढ़ोतरी ने वेटलैंड्स पर दबाव बढ़ा दिया है, क्योंकि शहर की पानी की जरूरतें इन वेटलैंड्स से 78.5 मिलियन लीटर पानी निकालकर पूरी की जाती हैं।

कुंभी कागज के संस्थापक रूपांकर भट्टाचार्जी अपनी रचनात्मकता से जल संरक्षण करते हुए एक बेहतरीन उद्यमी बन गए। बिना किसी रसायन के केवल जलकुंभी के सूखे गुदे का उपयोग करके प्रिंट करने योग्य कागज बनाने की उनकी यात्रा ने दीपोर बील के आसपास के स्थानीय निवासियों को भी शामिल किया। उनके इस प्रयोग से पिछले साल लगभग 42 टन जलकुंभी का सफाया हो गया, इसके साथ ही ऐसे कागज का उत्पादन भी हुआ जिसे बनने में बहुत ही कम पानी का उपयोग होता है। इससे स्थानीय मछुआरों और आर्द्रभूमि की जैव-विविधता पर सकारात्मक सहजीवी प्रभाव पड़ा है।


नागरिक द्वारा आयोजित वेबिनार ने स्थानीय स्तर पर चल रहे सामूहिक प्रयासों को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूर्वी कलकत्ता आर्द्रभूमि के सफल सीवेज प्रबंधन से लेकर उदयपुर में स्थानीय समूहों द्वारा किये गए संरक्षण के प्रयास और जलकुंभी को कागज में बदलने जैसी इनोवेटिव तरीकों तक, हर तरह के सकारात्मक प्रयासों पर चर्चा की गई। इस तरह के प्रयास शहरी आर्द्रभूमि की सुरक्षा के लिए बहुत जरूरी है ताकि शहर और शहरी समुदायों का अस्तित्व बरकरार रहे।


Source: (Left) Fisherman collecting water hyacinth for paper production, (Top Right) Kumbhi Kagaz’s Product, kumbhikagaz.com (Bottom Right) Kumbhi Kagaz Team | Business Northeast
Source: (Left) Fisherman collecting water hyacinth for paper production, (Top Right) Kumbhi Kagaz’s Product, kumbhikagaz.com (Bottom Right) Kumbhi Kagaz Team | Business Northeast



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