संग्रहालय और यादें
- connect2783
- May 20, 2024
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Updated: Jul 16
भारत में संग्रहालयों का स्वरूप अब केवल महानगरों तक सीमित नहीं रहा। अब छोटे शहरों और कस्बों में भी अनोखे संग्रहालय उभर रहे हैं, जो स्थानीय इतिहास, संस्कृति और सूक्ष्म पहचान को संजोए हुए हैं। हालांकि, इन्हें वित्तीय सहायता, रखरखाव और कम दर्शक संख्या जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद डिजिटलीकरण, शैक्षिक पहलों और बिएनाले जैसे नवाचार इन संग्रहालयों को सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नए अवसर प्रदान कर रहे हैं। क्या ये छोटे शहरों के संग्रहालय विरासत को संजोते हुए आधुनिकता को भी अपना सकते हैं?

"असली संग्रहालय वे जगह हैं जहाँ समय को स्थान में बदल दिया जाता है।" - ओरहान पामुक, द म्यूजिक ऑफ इनोसेंस।
यूरोप में 16वीं और 17वीं शताब्दी के समय शुरू होने वाले संग्रहालय बहुत महत्वपूर्ण थे क्योंकि इन्हें उपनिवेशों के अमूल्य अवशेषों का भंडार माना जाता था। बीतते समय के साथ संग्रहालय पूरी दुनिया में शुरू हो गए और स्थानीय लोगों की सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मौजूदा समय में संग्रहालय युवाओं के लिए एक ऐसा अनूठा माध्यम है जिसके द्वारा वे सामाजिक संपर्क स्थापित करना, सांस्कृतिक शिक्षा ग्रहण करना सीख सकते हैं। अक्सर जब हम नए शहर जाते हैं तो वहाँ के संग्रहालय को देखना हमारा प्रमुख उद्देश्य होता है।
क्या आप जानते हैं कि भारत में पिछले 140 सालों में करीब 1200 संग्रहालय स्थापित किये गए हैं? संग्रहालय की स्थिति पर आधारित पहली सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक साल 1936 तक पूरे भारत मे केवल 105 संग्रहालय थे। संस्कृति मंत्रालय की मौजूदगी के कारण म्यूजियम ग्रांट स्कीम और स्कीम फ़ॉर प्रोमोशन ऑफ कल्चर ऑफ साइंस की सहायता से इस सदी की शुरुआत से ही 383 नए संग्रहालय की स्थापना हुई। बीते कुछ सालों में देश के महानगरों के अलावा छोटे शहरों और कस्बों ने भी इनका उदय होते देखा। जोधपुर का अरना झरना म्यूजियम, अजरखपुर का लिविंग एंड लर्निंग डिज़ाइन सेंटर, मायोंग का ब्लैक मैजिक एंड विचक्राफ्ट म्यूजियम जैसे कई लीक से हटकर म्यूजियम खोले गए जो छोटे से छोटे समुदायों के बीच भी सांस्कृतिक विरासत को बचाकर रखने का संदेश देते हैं।
पंजाब के अबोहर नगर निगम ने साल 2021 में इतिहास के प्रोफेसर योगेश स्नेही की देख-रेख में 'अबोहर इतिहास परियोजना' की शुरुआत की। स्थानीय लोगों से ऐतिहासिक कहानियाँ और कलाकृतियों को जमा करके अतीत के गौरव से सभी को परिचित कराना ही इसका प्रमुख उद्देश्य था। लोगों की सहभागिता से अबोहर के संग्रहालय को और मजबूत बनाया जा रहा है जो घोड़े के प्रजनन और कपास व्यापार के केंद्र के रूप में अपनी पहचान बनाये है। इसी तरह कारगिल के एजाज हुसैन मुंशी एक संग्रहालय चलाते हैं जिसका नाम है मुंशी अजीज भट म्यूजियम ऑफ सेंट्रल एशियन एंड कारगिल ट्रेड आर्टिफैक्ट्स। यह संग्रहालय सिल्क रूट के इतिहास में इस शहर की प्रमुख भूमिका को बयां करता है। इस तरह एक परिवार के द्वारा संचालित संग्रहालय "सूक्ष्म-ऐतिहासिक पहचान" को बरकरार रखने में मदद करता है। इस तरह के व्यक्तिगत पहल न केवल इतिहास को संजोकर रखते हैं बल्कि सरकारी योजनाओं और सामाजिक विवादों से परे आंतरिक मूल्यों को उजागर करते हैं।

इसी कड़ी में अगला नाम आता है कॉनफ्लिक्टोरियम संग्रहालय का जो अपनी प्रदर्शनी में स्थानीय, आपसी और निजी विवादों को सुलझाने वाले कई सरल उपायों को दिखाने के लिए मशहूर है। पहला कॉनफ्लिक्टोरियम म्यूजियम अहमदाबाद में शुरू किया गया था जो एक दशक से भी ज्यादा पुराना है। जबकि इसका दूसरा विंग हाल ही में साल 2022 में रायपुर में खोला गया।
स्थानीय रूप से संबंधित प्रदर्शनों ने न केवल छत्तीसगढ़ को प्रभावित करने वाली स्थिति को उजागर किया है बल्कि क्षेत्र के भीतर मानव-पशु विवाद, जातिगत विवाद और सामुदायिक तनाव को भी उजागर किया है। इस बीच मिदनापुर के पास स्थित बिदिसा एंथ्रोपोलॉजी (मानवशास्त्र) म्यूजियम, झारग्राम का आदिवासी संग्रहालय उद्यान और दुमका का जोहार मानव संसाधन विकास केंद्र जैसे कई स्वतंत्र रूप से चलने वाले संग्रहालय भारत की स्वदेशी विरासत और संस्कृति को सहेज रहे हैं।


हालांकि इस तरह के सकारात्मक कदम और अनूठे संग्रहालय देश की संस्कृति और इतिहास को सहेजने में सफल रहे हैं, लेकिन वे कई परेशानियों से भी जूझ रहे हैं। उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश के चंबा में भूरी सिंह म्यूजियम और कांगड़ा कला संग्रहालय के काफी मशहूर संस्थान होने के बावजूद हो रही अनदेखी ने इनकी अहमियत को खतरे में डाल दिया है। सरकारी अधिकारियों की अनदेखी, रखरखाव में कमी और ज्यादा प्रवेश शुल्क ने यहाँ आने वाले लोगों को निराश किया है। पेशे से म्यूजियोलॉजिस्ट और कंजरवेटर विनोद डेनियल बताते हैं कि सोचने और चीजों को देखने का पुराना नजरिया, संरक्षण की उपेक्षा और शोध की कमी के कारण भारत के संग्रहालय कुछ खास तरक्की नहीं कर पाए हैं। आधुनिकीकरण की वकालत करने वाले अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों के बावजूद, कई भारतीय संग्रहालयों में एक गहन अनुभव की कमी है। इसके अलावा संग्रहालय के बारे में सोचने वाले दूरदर्शी नेताओं की कमी का होना भी एक प्रमुख चुनौती है, जो दर्शकों की बदलती उम्मीदों को पहचान सके और इसे पूरा करने में समर्थ हो।
भारतीय संग्रहालयों के लिए फंडिंग एक महत्वपूर्ण समस्या बनी हुई है। सीमित वित्तीय संसाधन के कारण कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह वित्तीय कमी धन संग्रह को बढ़ाने, प्रदर्शनियों का विकास करने शैक्षिक कार्यक्रम लागू करने में बाधा उत्पन्न करती है।
छोटे शहरों और कस्बों के स्थानीय संग्रहालयों में आने वाले दर्शकों की कमी एक स्पष्ट चुनौती है। साल 2017-18 में जारी भारत के संस्कृति मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक नई दिल्ली के राष्ट्रीय आधुनिक कला गैलरी (नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, एनजीएमए) में सालाना 2.25 लाख आगंतुक पधारें। जबकि इसी साल पेरिस के द लोवर ने 102 लाख आगन्तुकों को अपनी ओर लुभाया था। यह तो भारत के प्रमुख राष्ट्रीय आधुनिक कला गैलरी के प्रति लोगों की रुचि के आंकड़े हैं जबकि छोटे संग्रहालयों के प्रति लोगों की रुचि और भी कम है।
कई विशेषज्ञ यह बताते हैं कि संग्रहालयों में कम रुचि का कारण सांस्कृतिक इतिहास की शिक्षा की कमी और 'संग्रहालय जाने की संस्कृति' को बढ़ावा नहीं देना है। इससे निपटने के लिये पटना का राजकीय ‘बिहार संग्रहालय’ राज्य की युवा आबादी को कला और संस्कृति से जोड़ने की योजना को फलीभूत करने में लगा है। बिहार के शिक्षा मंत्रालय ने साल 2019 से प्राथमिक स्कूल के बच्चों को संग्रहालय दिखाने के लिए फंडिंग शुरू की है और नतीजा यह हुआ कि केवल 1 साल के दौरान 1,000 स्कूलों के 33,000 छात्रों ने संग्रहालय का दौरा किया। लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण यह योजना थोड़ी सुस्त हो गई। अब संग्रहालय में आने वाले दर्शकों में 25% दर्शक बच्चे ही हैं और फरवरी 2022 में इनकी संख्या 19,228 थी। महामारी के बाद डिजिटलीकरण और टेक्नोलॉजी के उपयोग से छोटे संग्रहालयों में भी अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं जैसे कि गुरेज में शिना सांस्कृतिक केंद्र। यह पहला संग्रहालय है जो राष्ट्र के निर्माण में दर्द-शिना आदिवासी समुदाय के योगदान को दिखाता है। इस संस्थान में डिजिटल डिस्प्ले, कलाकृतियाँ, वस्त्र और इंटरैक्टिव बोर्ड आदि भी हैं।

इन सबके अलावा भारत के राष्ट्रीय राजधानी से दूर कोच्चि और पटना जैसे शहरों में हर दो साल में बड़े पैमाने पर आयोजित होने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी (बीनाले) के आयोजन ने भी बखूबी प्रभावित किया है। साल 2023 में बिहार संग्रहालय बीनाले ने संग्रहालयों की पुरानी धारणाओं को चुनौती देते हुए स्थानीय समुदायों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए वैश्विक स्तर पर एक गतिशील मंच प्रदान किया।
इसके अलावा इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ म्यूजियम (आईकॉम) जैसे मंच ने नेटवर्किंग और सहयोग के लिए कई अवसर प्रदान किये हैं। इस पहल की वजह से छोटे शहरों के संग्रहालयों को विशेषज्ञों से अनुभव और नए चलन को सीखने में मदद मिल रही है। स्थानीय विरासत को सहेजकर रखने और इन्हें बढ़ावा देने के लिए भारत के छोटे शहरों के संग्रहालयों को उनकी काबिलियत का एहसास कराना बहुत जरूरी है और यह सरकारी एजेंसी, सांस्कृतिक संगठन और स्थानीय नागरिकों के निवेश और सहयोग से ही संभव हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस 2024 के लिए आईकॉम ने लोगों को "शिक्षा पर पुनर्विचार करने और एक ऐसे भविष्य की कल्पना करने के लिए आमंत्रित किया है जहाँ ज्ञान साझा करने से बाधाओं को पार किया जा सकता है, जहाँ नवाचार परंपरा के साथ जुड़ता है।"
पारिवारिक इतिहास अभिलेखागार, विषयगत प्रदर्शनी और टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन के माध्यम से भारत के छोटे शहरों और कस्बों के संग्रहालयों ने सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक विरासत को बनाने में अपनी प्रमुख भूमिका निभानी शुरू कर दी है।
क्या आपके शहर में भी ऐसा कोई अलग और अनोखा संग्रहालय है?
आपके शहर के सरकारी अधिकारी या समुदाय इन स्थानीय विरासतों की सुरक्षा कैसे कर रहे हैं?
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