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छोटे शहरों की संस्कृति को जीवंत रखते मेले

  • connect2783
  • Aug 15, 2024
  • 7 min read

Updated: Jul 15

चार साल बाद पुरोला लौटने पर तारा अपने शहर को एक नई नजर से देखती है। जो बचपन की यादों से तो भरा था लेकिन बदलते समय के साथ कहीं खो सा गया था। अपने दोस्तों के साथ मिलकर वह एक पारंपरिक मेले का आयोजन करती है, जहाँ देवताओं की पूजा होती है, झंगोरे की खीर और काफली भात जैसे स्वादों से लोग जुड़ते हैं। लोकगीत और नुक्कड़ नाटकों से पुरानी कहानियाँ फिर से जीवंत हो उठती हैं। यह मेला पुरानी यादों से सराबोर परंपरा और सामुदायिक भावना को फिर से जीने की एक कोशिश है। तो क्या तारा इस कोशिश में कामयाब हो पाएगी? क्या पुरोला का खोया रंग वापस आ पाएगा?


तारा 4 सालों बाद छुट्टियां बिताने घर लौटी। तारा उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के छोटे से शहर पुरोला से है, जो पिछले 4 सालों से दिल्ली में कार्यरत है। सालों बाद घर लौटी तारा अपने पुराने दोस्तों से मिलने पहुंची और उनसे बातें करने लगी, बातें करते-करते उनकी पुरानी यादें ताज़ा हो गई।

सहसा उसकी स्मृति में कुछ यादें घूमने लगी और वह बोली “पहले हम मेलों में कितना घूमते थे कितना मजा आता था।” तभी उसका एक दोस्त बोला “अरे! अब कहां होते हैं वैसे मेले, अब ना तो वो दिन रहे ना वो बातें, अगर कुछ बाकी है तो बस वो यादें।”

तारा सोचने लगी वो मेले कितने मनोरंजक और मजेदार होते थे। उन मेलों में ही तो हमें घूमने, नाचने गाने के मौके मिलते थे। उनके बिना तो हमारी ज़िंदगी खाली-खाली है और हमारे पास तो कम से कम वो यादें तो हैं पर आजकल के बच्चे उन्हें तो पता ही नहीं उन मेलों के बारे में।


उसने सोचा क्यों ना इस बार दोस्तों के साथ मिलकर एक मनोरंजक और मजेदार मेले का आयोजन किया जाए।


तारा ने अपने दोस्तों को मेले के आयोजन का सुझाव दिया, सभी ने बातचीत कर निष्कर्ष निकाला कि इस वर्ष हम अपने शहर में एक धार्मिक, सांस्कृतिक और विकास के मेले का आयोजन करेंगे।


अपने शहर और समाज को दृष्टिगत रखते हुए तारा और उसके दोस्तों ने आस-पास के लोगों के साथ मिलकर एक मेले का आयोजन किया , जिसमें समाज के सभी लोग भाग ले सकें।


हिमालय की गोद में बसे देवभूमि उत्तराखंड राज्य के किसी शहर (उत्तरकाशी जिले का पुरोला) में मेले का आयोजन क्षेत्र के इष्टदेवों (स्थानीय देवडोलियों) के आशीष के बिना अधूरा है। इसलिए स्थानीय लोग क्षेत्र के आराध्य देवों को लेकर मेले में पहुंचें और स्थानीय वाद्ययंत्रों ढ़ोल, दमाऊ, शंख-डमरुओं की कर्णप्रिय ध्वनि व ईष्टदेवों के जयकारों के साथ मेले का प्रारंभ हुआ। देवों की स्तुति के लिए किए शंखनाद ने सबके भीतर ऊर्जा भर दी।


भक्तों और आराध्य देवों के मध्य अटूट आस्था और देव-डोलियों के नृत्य ने सभी को भाव विभोर कर दिया।


मेले का शुभारंभ होते ही चहल-पहल शुरू हो गई, एक ओर दुकानें सज रही है तो दूसरी ओर पकवान बन रहे हैं। मेले में स्थानीय व्यंजनों सीड़े, अस्के, अरसे, काफली भात, चैंसू, गहत का फाणा, झंगोरे की खीर आदि को विशेष स्थान दिया गया, महिलाओं द्वारा मेले में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया गया। सारे ही व्यंजन बहुत स्वादिष्ट बने हैं लेकिन काफली भात और झंगोरे की खीर को सबसे ज्यादा पसंद किया गया। 


सबसे कमाल की बात यह है कि तमाम स्वादिष्ट व्यंजनों के स्टाल से ज्यादा भीड़ बर्फ की दुकान में है। जी हां, कुछ महिलाओं ने ऊपर पहाड़ी इलाके, जहाँ बर्फ गिरी थी वहां से बर्फ लाई हैं और उसे नमक, मिर्च, गुड़ और खटाई में मिलाकर चाट तैयार किया है। लोगों ने बर्फ की चाट (हंयू) को बहुत पसंद किया।


यह धार्मिक सांस्कृतिक और विकास मेला हमारी संस्कति को संजोए रखने का एक छोटा सा प्रयास है इसलिए इस मेले में स्थानीय लोकगायकों और लोककलाकारों को सांस्कृतिक कलामंच प्रदान किया गया। जिसमें लोकगायकों और गायिकाओं द्वारा पारंपरिक विधाओं जागर, चोपती, छोड़े, पांडव नृत्य, तांदी गीत आदि पर प्रस्तुति दी गई। सांस्कृतिक क्षेत्र में आई नवीन क्रांति के कारण अब बहुत कम लोग इन पारंपरिक विधाओं के बारे में जानते हैं। लोककलाकारों द्वारा इन विधाओं पर दी गई प्रस्तुति में कई लोगों ने पहली बार इन विधाओं के बारे में जाना। अब तो सोचकर डर लगने लगा है कि कहीं ये सब सदा के लिए विलुप्त ना हो जाए।


क्षेत्र के प्रसिद्ध लोकगायक व उनकी टीम की प्रस्तुति ने जनता को थिरकने पर मजबूत कर दिया। मंच पर कई छोटे बड़े कलाकारों ने अपनी प्रस्तुति दी। स्थानीय लोकगायिका ने मांगलगीत गाकर सभी महिलाओं की आंखे नम कर दी।


मेले में सांस्कृतिक कलामंच ना केवल स्थानीय कलाकारों के लिए अपितु सभी इच्छुक कलाकारों के लिए है, जिसमें सभी ने बढ़ चढ़ कर प्रतिभाग किया।


लोककलाकारों द्वारा प्रस्तुत पर्यावरण संरक्षण पर नुक्कड़ नाटक मेले का विशेष आकर्षण रहा। जिसने मनोरंजन के साथ साथ  समाज में जागरूकता फैलाने का कार्य भी किया।


कलाकारों द्वारा स्थानीय बोली में नाटक की प्रस्तुति दी गई। 


मेले में क्षेत्र के उन युवा समूहों ने भी प्रतिभाग किया जो समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए कार्य करते हैं। युवा समूह ने गीतों, नुक्कड़ नाटक के माध्यम से सभी को जागरूक करने का प्रयास किया।


75 वर्षीय एक बुजुर्ग द्वारा प्रकृति और हिमालय के प्रति प्रेम और कृतज्ञता प्रकट करते हुए एक सुंदर से गीत की प्रस्तुति दी गई जिसने सभी को भाव विभोर कर दिया। मनुष्य और प्रकृति के मध्य अब ये प्रेम कहाँ बाकी रह गया है, वास्तव में ये उन्हीं लोगों में से हैं जो पेड़ों की रक्षा के लिए प्राणों की परवाह तक नहीं करते।


जानते हैं ये लोग हिमालय की गोद में बीते सुकून भरे जीवन की कीमत, इसलिए गीत गाते हुए उनकी आंखे तक भर आई।


देखकर लगता है कि मेले में सभी को मजा आ रहा है, जहां एक ओर बच्चे झूले, मिठाइयों का आनंद ले रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर बुजुर्ग गीतों का आनंद ले रहे हैं।


मेले में क्षेत्र के बहुत से लोगों ने स्टाल लगाए हैं, महिलाओं ने स्थानीय लाल चावल, पहाड़ी राजमा, उड़द की दाल, अखरोट आदि खाद्य पदार्थों के प्रचार-प्रसार के लिए स्टाल लगाया है, महिलाओं ने स्थानीय स्नेक्स च्यूड़ा, बुकाण भी खिलाए।


कृषकों ने कृषि पशुपालन से संबंधित स्टाल लगाया है जिसमें उन्होंने कृषि यंत्रों , तकनीकों और आर्गेनिक फलों और सब्जियों की प्रस्तुति दी। लोगों ने भी आर्गेनिक नाम सुनते ही झटपट में सब्जियां और फल खरीद लिए।


इन स्टाल के सबसे अंत में एक दुबली-पतली महिला का स्टाल नजर आया , जिसने स्टाल में जंगली फल काफल, फेडू, बेर व जंगली सब्जियां कंडाली, खोल्या, लिंगुडा़, कलन्या व जड़ी बूटियों का स्टाल लगाया है और सबसे विचित्र बात यह है कि यह महिला ये सारी चीज़े मुफ्त में दे रही है।


महिला सभी को इन जंगली फलों और सब्जियों का गुण बता रही है और सभी को मुफ्त में बांट रही है।

तब किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा कि आप ये सब मुफ्त में क्यों दे रही है तो वह कहती हैं, “अरे साहब !  मैं तो आज एक ही दिन ये सब आपको मुफ्त में दे रही हूं हमारे जंगल तो बरसों से हमें साग सब्जी, फल फूल, लकड़ी पानी, घास पात सब कुछ मुफ्त में देते हैं, तो ये तो मैंने अपनी मां (प्रकृति) से सीखा है।” ऐसा कहते हुए वो सबसे वनों की रक्षा की अपील कर रही है।

आज के समय में हम पढ़े लिखे लोग जो क्लाइमेट चेंज, ग्रीनहाउस इफेक्ट, ग्लोबल वॉर्मिंग, एसिड रेन, ओज़ोन डिप्लीशन इतनी सारी पर्यावरण को प्रभावित करने वाली समस्याओं के बारे में पढ़ते हैं, जानते हैं फिर भी हम पर्यावरण के लिए अपनी व्यस्त दिनचर्या से एक मिनट नहीं निकाल सकते उनके लिए यह महिला एक प्रेरणा है, जो अकेले अपने जंगलों की रक्षा के लिए प्रयासरत है।


कैसा है ये प्रेम और कैसी है ये कृतज्ञता? मेले में उत्साह और उमंग इसलिए भी था क्योंकि पिछले चार-पांच सालों बाद ऐसे मेले का आयोजन हुआ जो लोगों के लिए यादगार रहे।


क्षेत्र में आयोजित सामाजिक, सांस्कृतिक एवं विकास मेले में स्थानीय टीमों ने भाग लिया और यमुना घाटी की संस्कृति की झलक पेश की।


मेले में समाज के अनेक पहलू देखने को मिले जहां कोई वाणिज्यिक गतिविधियों में संलग्न हैं तो कोई मनोरंजन में, किन्तु इसी भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका इस मेले में सम्मिलित होने का उद्देश्य है सेवा। कुछ सामाजिक संगठनों और आश्रमों के लोग पुस्तकों का वितरण नि:शुल्क कर रहे थे और महिलाओं को घरेलू हिंसा उनकी पारिवारिक समस्याओं, महिला सशक्तिकरण के बारे में जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं।


क्षेत्र के विभिन्न विद्यालयों ने भी मेले में प्रतिभाग किया। कुछ विद्यालयों के बच्चों ने स्थानीय वेशभूषा में सांस्कृतिक प्रस्तुति देते हुए स्थानीय लोकसंस्कृति को पुनर्जीवित करने के प्रयास में योगदान दिया और शिक्षा से संबंधित स्टाल लगाए, बच्चों द्वारा गणित, विज्ञान, इतिहास, कला और लोकसंस्कृति पर टी.एल.एम प्रस्तुत किया गया।


मेले में महिला मंगल दल की प्रस्तुति मेले का मुख्य आकर्षण बनी, महिलाओं के एक दल ने स्थानीय वेशभूषा में स्थानीय वाद्ययंत्र ढोल, दमाऊ, खंजरी, बजाते हुए और लोकगीत गाते हुए मेले में एंट्री की। जिसमें वे गांव की जीवनशैली को गीतों के माध्यम से व्यक्त कर रही हैं, उनके साथ अधिकतर लोग गीतों को गुनगुनाने लगे।


महिलाओं ने गीतों और पहेलियों (बूजाणी) के माध्यम से पारम्परिक त्योहारों हरेला, फूलदेई, मकर संक्रान्ति, पूस का त्यार, बग्वाल मेला, घुघुतिया, घी त्यार आदि के बारे में बताया। ये जो स्थानीय त्योहार हैं इनका अपना-अपना महत्त्व है।


फुलदेई जिसे फूलों की सक्रांति भी कहा जाता है। इस दिन बच्चे फूल तोड़कर लाते हैं और पारंपरिक वेशभूषा में लोकगीत गाते हुए पूरे गांव को सजाते हैं।


पूस के त्यार पूस के महीने में मनाए जाते हैं , जिसमें हर दिन नए-नए पकवान बनाए जाते हैं।


बग्वाल यानी ‘पाषाण युद्ध’ का आयोजन उत्तराखंड के प्रसिद्ध देवीधुरा में किया जाता है।


हरेला पर्व उत्तराखंड का प्रसिद्ध पर्व है, इस दिन प्रकृति पूजन किया जाता है, यह नई ऋतु के आने का सूचक होता है।


सभी पारंपरिक और स्थानीय त्योहारों का अपना महत्व है।


कितना मनोहर दृश्य है ये जो पहाड़ के रिच कल्चर को दर्शाता है। बेशक पहाड़ों की भौगोलिक कठिनाइयों के कारण यहां पर सर्वाइवल कठिन है, लेकिन फिर भी लोग यहां स्वस्थ, सुंदर और ऊर्जावान जीवन जीते हैं। लोग अपने  गांव, शहर से आत्मीय रूप से जुड़े हैं और गर्व है इन्हें अपनी संस्कृति पर।


अधिकतर लोगों का विचार है कि प्रत्येक वर्ष शहर में मेले का आयोजन होना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी मेले के माध्यम से अपनी संस्कृति को जान सके। उत्तराखंड में आयोजित होने वाले प्रसिद्ध मेलों देवीधुरा के मेला, जौलजीवी मेला, माघ मेला, गौ र मेले के भांति यह मेला भी हमारे शहर के लिए विरासत बन सकता है।


मेला मनोरंजन और मेल-मिलाप का पर्व है और सामाजिक, सांस्कृतिक और विकास मेला हमारी संस्कृति और सभ्यता को जीवंत रखने में अहम भूमिका निभाता है।

About the Author


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Anjali Rana

A native of the hill town - Purola, Anjali is presently pursuing a Bachelor of Arts degree. Anjali is a keen observer who finds inspiration in the small details of life. When words fail to express her thoughts, she turns to writing, pouring her reflections onto the pages with creativity and passion.



 
 
 

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